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________________ चतुर्थ अध्याय २८७ अथ कामिनीकटाक्षनिरीक्षणस्यापातमात्र रमणीयत्वपरिणामात्यन्तदारुणत्वे वक्रभणित्युपपत्त्या प्रति पादयति चक्षुस्तेजोमयमिति मतेऽप्यन्य एवाग्निरक्ष्णो रेणाक्षीणां कथमितरथा तत्कटाक्षाः सुधावत् । लोढा दृग्भ्यां ध्रुवमपि चरद विष्वगप्यप्यणीयः, स्वान्तं पुंसां पविदहनवद्दग्धुमन्तर्ज्वलन्ति ॥८०॥ मते --चक्षुस्तैजसं रश्मिवत्त्वात्प्रदीपवदिति वैशेषिकदर्शने । विचार्यमाण इति लक्षयति । अन्य एव - भासुररूपी ष्णस्पर्शगुणयोगित्वसंयुक्तबाह्य स्थूलस्थिर मूर्तद्रव्यदाहित्व - लक्षणादग्नेविलक्षण एव । लीढाः -आस्वादिताः । सतर्षमा लोकिता इत्यर्थः । ध्रुवमपि - नित्यरूपतया - ऽविकार्यमपि । चरद्विष्वगपि — समन्ताद् भ्रमदपि । तदुक्तम्- अपिशब्दादभ्युपगमसिद्धान्ताश्रयणेन 'क्रियाऽन्यत्र क्रमेण स्यात्, कियत्स्वेव च वस्तुषु । जगत्त्रयादपि स्फारा चित्ते तु क्षणतः क्रिया ॥' [ सोम. उपा. ३४५ श्लोक ] अप्यणीयः - परमाणोरप्यतिशयेन सूक्ष्मं योगिभिरपि दुर्लक्षत्वात् ||८०| उक्त उपमा दी है ऐसा प्रतीत होता है। पं. आशाधरने टीका में 'गुरु' का अर्थ अध्यात्म तत्वका उपदेशक किया है । अध्यात्म तत्त्वका उपदेश सुने बिना न अपनी आत्माका बोध होता है और न श्रद्धा । श्रद्धाके पश्चात् ही आत्माके प्रति रुचि बढ़ती है । रुचि बढ़ते-बढ़ते रति पैदा हो जाती है। जैसे रागी स्त्रीरतिके लिए घर-द्वार सब भुला बैठता है और स्त्रीके लिए मजनू बन जाता है। वैसे ही आत्मरतिके पीछे मनुष्य विरागी बनकर घर-द्वारको तिलांजलि देकर केवल अपने शरीर के सिवा सब कुछ छोड़कर निकल पड़ता है, वनमें और एकान्त में आत्मरतिमें निमग्न होकर उसीमें लय हो जाता है । रागी भी यही सब करता है किन्तु अपनेको ही भुला बैठता है वह परके पीछे दीवाना होता है । विरागी 'स्व' के पीछे दीवाना होता है। इतना ही अन्तर है भोगी और योगीमें ॥७९॥ कामियोंके कटाक्षका अवलोकन प्रारम्भमें ही मनोरम लगता है किन्तु परिणाममें अत्यन्त भयानक है, यह बात वक्रोक्तिके द्वारा कहते हैं- चक्षु तैजस है । इस वैशेषिक मतमें भी कामिनियोंके लोचनों में भास्वररूप और उष्ण स्पर्श-गुणवाली अग्निसे कोई भिन्न ही आग रहती है । यदि ऐसा न होता तो मनुष्यों के नेत्रोंके द्वारा अमृतकी तरह पान किये गये उनके कटाक्ष मनुष्योंके नित्य और अलात चक्रकी तरह सर्वत्र घूमनेवाले अणुरूप भी मनको वाग्निकी तरह जलानेके लिए क्यों आत्माके भीतर प्रज्वलित होते ॥८०॥ विशेषार्थ - वैशेषिक दर्शन चक्षुको तैजस मानता है और तेज अर्थात् अग्नि गर्म होती है, जलाती है । तथा मनको अणुरूप नित्य द्रव्य मानता है । यतः वैशेषिक दर्शनमें आत्मा व्यापक है और मन अणुरूप है अतः मन आत्मासे सम्बद्ध होते हुए अलात चक्रकी तरह घूमता रहता है । यह सब उनकी मान्यता है । उसीको लेकर ग्रन्थकारने व्यंग किया है कि स्त्रियोंके नेत्र भी तैजस हैं किन्तु उनकी विचित्रता यह है कि मनुष्य उन्हें अमृत मानकर अपनी आँखोंसे पी जाते हैं जबकि बाह्य अग्निको पीना सम्भव नहीं है । किन्तु पीनेके बाद मनुष्यका मन कामिनीके वियोग में जला करता है अतः कामिनीकी आँखों में इस बाह्य आगसे भिन्न कोई दूसरी ही आग बसती है ऐसा लगता है ||८०|| Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ ६ १२ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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