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________________ २८६ ६ धर्मामृत (अनगार ) अथ कामिनी कटाक्ष निरीक्षणादिपरम्परया पुंसस्तन्मयत्वपरिणतिभावेदयतिसुविभ्रमसंभ्रम भ्रमयति स्वान्तं नृणां धूतंवत्, तस्माद् व्याधिभरादिवोपरमति व्रीडा ततः शाम्यति । शङ्का वह्निरिवोदकात्तत उदेस्यस्यां गुरोः स्वात्मवद्, विश्वासः प्रणयस्ततो रतिरलं तस्मात्ततस्तल्लयः ॥७९॥ सुभ्रूविभ्रमसंभ्रमः -शोभने दर्शनमात्रान्मनोहरणक्षमे भ्रुवौ यस्याः सा सुस्तस्या बिभ्रमो रागोद्रेकाद् भ्रूपर्यन्तविक्षेपः, तत्र संभ्रमो निरीक्षणादरः । भ्रमयति - अन्यथावृत्तिं करोति व्याकुलयति वा । धूर्तवत्धतूरकोपयोगो यथा । शङ्का - भयम् । 'कामातुराणां न भयं न लज्जा' इत्यभिधानात् । गुरो:- -अध्यात्म९ तत्त्वोपदेशकात् । स्वात्मवत् - निजात्मनि यथा ॥ ७९ ॥ विशेषार्थ - आचार्य सोमदेव ने कहा है- ' जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं उसका कार्य सिद्ध नहीं होता' । तथा और भी कहा है- 'विद्वानोंने तपकी सिद्धिमें दो ही कारण कहे हैंएक स्त्रियोंको न ताकना और दूसरा शरीरको कृश करना। जिसके अंग सुन्दर होते हैं उसे अंगना कहते हैं । अतः 'अंगना' का ग्रहण तो उपपत्ति मात्रके लिए है' । स्त्री मात्रके संसर्ग से भी सदाचार में गड़बड़ी देखी जाती है || ७८ || आगे कहते हैं कि स्त्रीके कटाक्ष आदिको देखते-देखते मनुष्य तन्मय हो जाता है जिस स्त्रीकी भौं देखने मात्रसे मनको हर लेती है उसे सुन कहते हैं। जब वह रागके उद्रेक भौं चढ़ाकर दृष्टिपात करती है तो उसको रागपूर्वक देखनेसे मनुष्योंका मन वैसा भ्रमित हो जाता है जैसा धतूरा खानेसे होता है । मनके भ्रमित होनेसे वैसे ही लज्जा चली जाती है जैसे रागके आधिक्यमें लज्जा नहीं रहती । लज्जाके चले जानेसे वैसे ही भय चला जाता है जैसे पानीसे आग । कहा भी है कि काम पीड़ितोंको न भय रहता है न लज्जा रहती है । भय शान्त हो जानेसे कामीको खीमें वैसा ही विश्वास उत्पन्न होता है जैसा गुरुके उपदेशसे उसकी अध्यात्मवाणीको सुनकर अपनी आत्मामें श्रद्धा उत्पन्न होती है । और जैसे गुरुके उपदेशसे अपनी आत्मामें रुचि होती है वैसे ही खीमें विश्वास उत्पन्न होनेसे उससे प्रेमपरिचय होता है तथा जैसे गुरुके उपदेशसे आत्मामें रुचि होनेके बाद आत्म रति होती है वैसे स्त्रीसे प्रेमपरिचय होनेपर रति होती है । और जैसे गुरुके उपदेशसे आत्मरतिके पश्चात् वह आत्मामें लय हो जाता है वैसे ही कामी स्त्री रति होनेपर उसीमें लय हो जाता है ॥७९॥ विशेषार्थ -- यहाँ स्त्रीमें विश्वास, प्रणय, रति और लयको क्रमसे आत्मामें विश्वास, प्रणय, रति और लयकी उपमा दी है। दोनों दो छोर हैं - एक रागका है और दूसरा विरागका । रागकी चरम परिणति स्त्रीके साथ रतिके समय में होनेवाली तल्लीनता है । उस समय भी यह विवेक नहीं रहता कि यह कौन है, मैं कौन हूँ और यह सब क्या है । इसीसे काव्यरसिकोंने उसे ब्रह्मानन्द सहोदर कहा है । आचार्य जयसेनने समयसारकी टीकामें सम्यग्दृष्टि के स्वसंवेदनको वीतराग स्वसंवेदन कहा है । इसपर से यह शंका की गयी कि क्या स्वसंवेदन सराग भी होता है जो आप स्वसंवेदन के साथ वीतराग विशेषण लगाते हैं ? उत्तर में आचार्यने कहा है कि विषयानन्दके समय होनेवाला स्वसंवेदन सराग है । उसीसे निवृत्ति के लिए वीतराग विशेषण लगाया है । उसी सबको दृष्टि में रखकर यहाँ ग्रन्थकारने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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