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________________ २६६ धर्मामृत ( अनगार) भूयोऽपि स्तेयदोषान् प्रकाशयंस्तद्विरतिं दृढयति-- गुणविद्यायशःशर्मधर्ममर्माविधः सुधीः। अदत्तादानतो दूरे चरेत् सर्वत्र सर्वथा ॥५३॥ गुणाः-कोलीन्यविनयादयः । यदाहुः 'सुतरामपि संयमयन्नादायादत्त मनागपि तृणं वा। भवति लघुः खलु पुरुषः प्रत्ययविरहो यथा चौरः॥ [ ] मर्मावित्-लक्षणया सद्यो विनाशनम् ॥५३॥ किसी तरह प्राण बचे तो उसने श्रीभूतिसे अपने रत्नोंकी याचना की। उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी और उसके पास कुछ प्रमाण भी नहीं था। फलतः श्रीभूतिने वणिक पुत्रको तिरस्कृत करके घरसे निकाल दिया। इतना ही नहीं. किन्तु राजासे भी उसकी शिकायत करके कि यह व्यर्थ ही मुझे बदनाम करता है, राजाका हृदय भी उसकी ओरसे उत्तेजित कर दिया । तब उस बुद्धिमान् वणिक् पुत्रने दूसरा मार्ग अपनाया। राजाकी पटरानीके महलके निकट एक इमलीका वृक्ष था। रात्रिमें वह उसपर चढ़ जाता और जोरसे चिल्लाता कि श्रीभूति मेरे अमुक रूप-रंगके रत्नोंको नहीं देता। मैंने उसके पास धरोहरके रूपमें रखे थे। इसकी साक्षी उसकी पत्नी है। यदि मेरा कथन रंचमात्र भी असत्य हो तो मुझे सूली दे दी जाये। इस तरह चिल्लाते-चिल्लाते उसे छह मास बीत गये। एक दिन रानीका ध्यान उसकी ओर गया। उसने श्रीभूतिको द्यूत-क्रीड़ाके लिए आमन्त्रित किया। श्रीभूति घृत-क्रीड़ाका रसिक था। रानीने द्यूत-क्रीड़ामें जीती हुई वस्तुओंको प्रमाणरूपमें दिखाकर अपनी धायके द्वारा श्रीभूतिकी पत्नीसे सातों रत्न प्राप्त कर लिये और राजाको दे दिये । राजाने उन रत्नोंको अनेक रत्नोंमें मिलाकर वणिक् पुत्रको बुलाया और उससे अपने रत्न चननेके लिए कहा। उसने अपने रत्न चुन लिये । यह देखकर राजाने वणिक् पुत्रकी प्रशंसा की और श्रीभूतिका सर्वस्व हरण करके गधेपर बैठाकर अपने देशसे निकाल दिया। वारिषेण राजा श्रेणिकका पुत्र था। बड़ा धर्मात्मा था। एक दिन चतुर्दशीकी रात्रिमें वह उपवासपूर्वक श्मशानमें ध्यानस्थ था। उसी दिन एक चोर हार चुराकर भागा। रक्षकोंने देख लिया। वे उसके पीछे भागे। श्मशानमें जाकर चोरने वह हार वारिषेणके पास रख दिया और वहाँसे भाग गया। रक्षकोंने वारिषेणको चोर मानकर राजा श्रेणिकसे शिकायत की। श्रेणिकने उसके वधकी आज्ञा दे दी। ज्यों ही जल्लाद ने तलवारका वार किया, तलवार फूलमाला हो गयी। तब वारिषेणका बड़ा सम्मान हुआ और उन्हें निर्दोष मान लिया गया ॥५२॥ पुनः चोरी की बुराइयाँ बतलाकर उससे विरत होनेका समर्थन करते हैं दूसरेके द्वारा दिये गये बिना उसके धनको लेनेसे कुलीनता-विनय आदि गुण, विद्या, यश, सुख और धर्म तत्काल नष्ट हो जाते हैं । अतः उससे सब देशोंमें, सब कालमें और सर्व प्रकारसे दूर ही रहना चाहिए ॥५३॥ विशेषार्थ-जिनागममें चोरीके लिए 'अदत्तादान' शब्द का प्रयोग किया है, जो उससे व्यापक होनेसे विशेष अर्थका बोधक है। साधारण तो चोरी परायी वस्तुके चुरानेको कहते हैं। किन्तु अदत्तादानका अर्थ है बिना दी हुई वस्तुका ग्रहण । बिना दी हुई वस्तुको स्वीकार करना चोरी है । यदि मार्गमें किसीकी वस्तु गिर गयी है या रेलमें कोई व्यक्ति कुछ सामान भूल गया है तो उसको ले लेना भी चोरी ही है। हमें ऐसी वस्तुको भी नहीं उठाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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