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________________ चतुर्थ अध्याय २६५ दोषान्तरजुषं-स्तेयादन्यस्यापराधस्य भक्तारम् । उक्तं च 'अन्यापराधबाधामनुभवतो भवति कोऽपि पक्षेऽपि । चौर्यापराधभाजो भवति न पक्षे निजोऽपि जनः ।।' 'अन्यस्मिन्नपराधे ददति जनावासमात्मनो गेहे । माताऽपि निजे सदने यच्छति वासं न चौरस्य ॥'[ क्वचित्-देशे काले वा ॥५०॥ अथ चौरस्यातिदुःसहदुःखपातकबन्धं निबोधयति भोगस्वाददुराशयार्थलहरीलुब्धोऽसमीक्ष्यहिकी, __स्वस्य स्वैः सममापदः कटुतराः स्वस्यैव चामुष्मिकीः । आरुह्यासमसाहसं परधनं मुष्णन्नघं तस्कर स्तत्किचिच्चिनुते वधान्तविपदो यस्य प्रसूनश्रियः ॥५१॥ लहरी-प्राचुर्यम् । यदाहुः 'लोभे पुनः प्रवृद्ध कार्याकार्य नरो न चिन्तयति । स्वस्याविगणय्य मृति साहसमधिकं ततस्तनुते ॥' [ स्वैः-बन्धुभिः । आमुष्मिकोः-नरकादिभवाः ॥५१॥ अथ स्तेयतन्निवृत्त्योः फलं दृष्टान्तमुखेनाचष्टे श्रुत्वा विपत्तीः श्रीभूतेस्तद्भवेऽन्यभवेष्वपि । स्तेयात्तव्रतयेन्माढिमारोढुं वारिषेणवत् ॥५२॥ व्रतयेत । माढिं-पूजाम् ॥५२॥ अपना भी लेते हैं। किन्तु चोरीकी कालिमासे अपना मुख काला करनेवाले मनुष्यको किसी भी देश और किसी भी कालमें माता-पिता वगैरह भी आश्रय नहीं देते ॥५०॥ आगे कहते हैं कि चोरके अत्यन्त दुःसह दुःखोंके हेतु पापका बन्ध होता है भोगोंको भोगनेकी खोटी आशासे मनुष्य एक साथ बहुत-सा धन प्राप्त करनेके लोभसे चोरी करता है। उस समय वह यह नहीं देखता कि इस कार्यसे इसी जन्ममें मुझे और मेरे सम्बन्धी जनोंको कितना कष्ट भोगना होगा तथा परलोकमें अकेले मुझे ही यहाँसे भी अधिक कष्टकर विपत्तियाँ भोगनी होंगी। जीवन तककी बाजी लगाकर असाधारण साहसके साथ वह पराया धन चुराता है। उससे वह इतने तीव्र पापकर्मका बन्ध करता है कि उसमें ऐसी विपत्तिरूपी फूल खिलते हैं जिसके अन्तमें उसके जीवनका ही अन्त हो जाता है ॥५१॥ आगे दष्टान्तके द्वारा चोरी और उसके त्यागका फल बतलाते हैं चोरीके दोषसे उसी भवमें तथा अन्य भवोंमें भी श्रीभूतिकी विपत्तियोंको सुनकर वारिषेणकी तरह अतिशय पूजित होनेके लिए चोरीका त्याग करना चाहिए ॥५२॥ विशेषार्थ-जैन कथा ग्रन्थोंमें चोरीमें श्रीभूति पुरोहितकी कथा वर्णित है। श्रीभूति राजपुरोहित था, शास्त्रोंका पण्डित था। सत्यकी ओर अधिक रुझान होनेसे वह सत्यघोष नामसे विख्यात था । उसका सब विश्वास करते थे। एक बार एक वणिक् पुत्र समुद्रयात्राके लिए जाते समय अपने बहुमूल्य सात रत्न उसकी स्त्रीके सामने श्रीभूतिके पास धरोहर रख गया। लौटते समय समुद्र में तूफान आ जानेसे उसका सर्वस्व समुद्र में डूब गया। जिस ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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