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________________ तद्यथा चतुर्थ अध्याय २६१ यत्तु नवधा असत्यमृषारूपमनुभयं वचस्तदपि मार्गावरोधेन वदतां न सत्यव्रतहानिरनृतनिवृत्त्यनतिवृत्तः । तथा चोक्तम् 'सत्यमसत्यालोकव्यलीकदोषादिवर्जमनवद्यम् । सूत्रानुसारिवदतो भाषासमितिभंवेच्छुद्धा ॥' [ 'याचेनी ज्ञापनी पृच्छानयनी संशयन्यपि । आह्वानीच्छानुकूला वाक् प्रत्याख्यान्यप्यनक्षरा ।। असत्यमोषभाषेति नवधा बोधिता.जिनैः। व्यक्ताव्यक्तमतिज्ञानं वक्तुः श्रोतुश्च यद्भवेत् ॥' [ अत्र वृत्तिश्लोकत्रयम् 'त्वामहं याचयिष्यामि ज्ञापयिष्यामि किंचन । पृष्टुमिच्छामि किंचित्त्वामानेष्यामि च किंचन ॥ बालः किमेष वक्तीति ब्रूत संदेग्धि मन्मनः। आह्वयाम्येहि भो भिक्षो करोम्याज्ञां तव प्रभो ॥ वह प्रतीत्य सत्य है। इसका कोई उदाहरण नहीं दिया है। चारित्रसारमें भी यही लक्षण दिया है और उसका उदाहरण दिया है यह पुरुष लम्बा है। लोकमें जो वचन संवृतिसे लाया गया हो उसे संवृति सत्य कहते हैं। जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणोंके होनेपर भी पंकमें उत्पन्न होनेसे पंकज कहते हैं । पं. आशाधरजीने तथा स्थानांगमें इसे सम्मति सत्य कहा है। सम्भवतया सम्मतिके स्थानमें ही संवृत्ति सत्य अकलंक देवने रखा है। गो. जीवकाण्डमें लोकोंकी सम्मतिके अनुसार जो सत्य हो उसे सम्मति सत्य कहा है जैसे राज्याभिषेक होनेसे पट्टरानी होती है। धूप, उपटन आदिमें या कमल, मगर, हंस, सर्वतोभद्र आदि सचेतन-अचेतन वस्तुओंमें आकार आदिकी योजना करनेवाला वचन संयोजना सत्य है। जनपद सत्यकी तरह ही ग्राम-नगर आदिकी वाणी देशसत्य है । आगमगम्य छह द्रव्य और पर्यायोंका कथन करनेवाले वचन समयसत्य हैं। इस तरह सत्यके भेदोंमें अन्तर पाया जाता है। उक्त इलोकमें 'पल्यं च'का 'च'शब्द अनुक्तके समुच्चयके लिए है । उससे नौ प्रकारके अनुभयरूप वचनका भी ग्रहण किया है क्योंकि मार्गका विरोध न करते हुए उस वचनके बोलनेसे सत्यव्रतकी हानि नहीं होती। कहा भी है--'अलीक आदि दोषोंसे रहित निर्दोष और सूत्रके अनुसार सत्य और अनुभय वचन बोलनेवाले साधुकी भाषासमिति शुद्ध होती है।' अनुभय वचनके नौ भेद इस प्रकार हैं-जिस वचनसे दूसरेको अपने अभिमुख किया जाता है उसे आमन्त्रणी भाषा कहते हैं । जैसे, हे देवदत्त । यह वचन जिसने संकेत ग्रहण किया उसकी प्रतीतिमें निमित्त है और जिसने संकेतग्रहण नहीं किया उसकी प्रतीतिमें निमित्त १. आशाधरेण स्वरचितमूलाराधनादर्पणे "सिद्धान्तरत्नमालायामेवमित्युक्त्वा ऐते श्लोका उद्धृताः ( भ. आ. शोलापुर पृ. ११९५)। २. 'आमंतणी आणवणी जायणी संपुच्छणी य पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ।। संसयवयणी य तहा असच्चमोसा य अट्ठमी भासा । णवमी अणक्खरगदा असच्चमोसा हवदि णेया' ॥-भग, आरा., ११९५-९६ गा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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