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________________ २६० धर्मामृत (अनगार) लक्षणभावपालनाङ्गत्वात् । पचेत्यादि सिद्धेऽप्योदने लोकव्यवहारानुसरणम्, तन्दुलान्पचेति वक्तव्ये 'ओदनं पच' इति वचनं व्यवहारसत्यम् । दीर्घ इत्यादि-ना पुरुषो दीर्घोऽयमित्यापेक्षिकं वचः प्रतीत्यसत्यमित्यर्थः । ३ उपमितौ-उपमानसत्यं यथा पत्योपमं चन्द्रमुखी कान्तेत्यादि । रूपे-रूपसत्यं यथा सितः शशधरः सतोऽपि लाञ्छने कार्यस्याविवक्षा । सम्मतौ-लोकाविप्रतिपत्ती, यथाऽम्बुजं पङ्काद्यनेककारणत्वेऽप्यम्बुनि जातम् । इत्थं वा 'देशेष्टस्थापनानामरूपापेक्षाजनोक्तिषु । संभावनोपमाभावेष्विति सत्यं दशात्मना ।। ओदनोऽप्युच्यते चौरो राज्ञी देवीति सम्मता । दृषदप्युच्यते देवो दुविधोऽपीश्वराभिधः ।। दृष्टाधरादिरागापि कृष्णकेश्यपि भारती। प्राचुर्याच्छ्वेतरूपस्य सर्वशुक्लेति सा श्रुता ।। ह्रस्वापेक्षो भवेदीर्घः पच्यन्ते किल मण्डकाः। अपि मुष्टया पिनष्टीन्द्रो गिरीन्द्रमपि शक्तितः॥ अतद्रूपाऽपि चन्द्रास्या कामिन्युपमयोच्यते। चौरे दृष्टेऽप्यदृष्टोक्तिरित्यादि वदतां नृणाम् ।। स्यान्मण्डलाद्यपेक्षायां सत्यं दशविधं वचः।' [ ] विशेषार्थ-पं. आशाधरने अपनी टीकामें अमितगतिके संस्कृत पश्च संग्रहसे श्लोक उद्धृत किया है और तदनुसार ही दस भेदोंका कथन किया है । संस्कृत पञ्च संग्रह प्रा. पं. सं. का ही संस्कृत रूपान्तर है किन्तु उसमें सत्यके दस भेद नहीं गिनाये हैं । गो. जीवकाण्ड में गिनाये हैं। सं. पं. सं में भी तदनुसार ही हैं। श्वे. स्थानांग सूत्र (स्था. १०) में भी सत्यके दस भेद गिनाये हैं-उसमें सम्भावनाके स्थानमें योग सत्य है। योगका अर्थ है सम्बन्ध । सम्बन्धसे जो सत्य है वह योग सत्य है, जैसे दण्डके सम्बन्धसे दण्डी कहना, छत्रके सम्बन्धसे छत्री कहना। कुछ सत्योंके स्वरूप में भी अन्तर है । सम्मत सत्यका स्वरूप-कुमुद, कुवलय, उत्पल, तामरस ये सभी पंक (कीचड़) से पैदा होते हैं फिर भी ग्वाले तक भी इस बातसे सम्मत हैं कि अरविन्द ही पंकज है । अतः सम्मत होनेसे अरविन्दको पंकज कहना सत्य है। कुवलयको पंकज कहना असत्य है क्योंकि सम्मत नहीं है। रूपसत्यका उदाहरण-बनावटी साधुको साधुका रूप धारण करनेसे रूपकी अपेक्षा साधु कहना रूपसत्य है। भावसत्य-जैसे बगुलोंकी पंक्तिको ऊपरी सफेदी देखकर सफेद कहना, यद्यपि अन्दरसे वह पंच वर्ण है। तत्त्वार्थवार्तिकमें (१।२०) सत्यके दस भेदोंका कथन है । यथा-नाम, रूप, स्थापना, प्रतीत्य. संवति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समय सत्य । इसमें संवृति, संयोजन, देश और समय ये चार नाम भिन्न हैं। रूपसत्यका उदाहरण-अर्थ नहीं रहनेपर भी रूपमात्रसे कहना। जैसे चित्र में अंकित पुरुषमें चैतन्यरूप अर्थके नहीं होनेपर भी पुरुष कहना। सादि, अनादि, औपशमिक आदि भावोंको लेकर जो वचन व्यवहार होता है १. 'जणवय सम्मय ठवणं नामे रूवे पडुच्च सच्चे य । बवहार भाव जोगे दसमे ओवम्म सच्चे य'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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