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________________ चतुर्थं अध्याय अथ मुमुक्षोर्मोनं स्वार्थाविरोधेन वक्तव्यं चोपदिशति - मौनमित्यादि । उक्तं च- तथा मौनमेव सदा कुर्यादार्यः स्वार्थक सिद्धये । स्वैकसाध्ये परार्थे वा ब्रूयात् साध्याविरोधतः ॥ ४४ ॥ 'मौनमेव हितं पुंसां शश्वत्सर्वार्थसिद्धये । वचो वातिप्रियं तथ्यं सर्वसत्त्वोपकारि यत्' [ 'धर्मनाशे क्रियाध्वंसे स्वसिद्धान्तार्थं विप्लवे । अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ॥' अथ क्रोध लोभ भीरुत्व- हास्य प्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च शिक्षार्थमाह J २५७ तृप्त करना चाहिए। समय आगमको भी कहते हैं और समय प्रसंगको भी कहते हैं । अतः साधुको प्रसंगके अनुसार तो बोलना ही चाहिए, साथ ही आगमका भी ध्यान रखकर आगम के अनुसार बोलना चाहिए। आगमसे विरुद्ध नहीं बोलना चाहिए ||४३|| ] ॥४४॥ भावयता सत्यव्रतमुच्चै रुद्योत्यमिति साधुओं को मुख्यतासे मौन ही रखना चाहिए। यदि बोलना पड़े तो स्वार्थके अविरुद्ध बोलना चाहिए, ऐसा उपदेश देते हैं Jain Education International गुणवान मुनिको केवल एक स्वार्थकी सिद्धिके लिए सदा मौन ही रखना चाहिए, बोलना नहीं चाहिए। किन्तु यदि कोई ऐसा परार्थ हो जो केवल अपने ही द्वारा साध्य हो तो स्वार्थका घात न करते हुए ही बोलना चाहिए ||४४ || विशेषार्थ - वचनका प्रयोग तो दूसरोंके लिए ही किया जाता है। अतः स्वार्थरत साधुको जहाँतक शक्य हो मौन ही रहना चाहिए । वचनका प्रयोग तभी करना चाहिए जब उसकी परोपकार के लिए अत्यन्त आवश्यकता हो । किन्तु उस समय भी स्वार्थको ध्यान में रखकर ही बोलना चाहिए । यों तो लोकमें सामान्य जन भी स्वार्थको हानि न पहुँचे ऐसा ध्यान रखकर ही बोलते हैं । इसीसे वे चोरी करके भी उसे छिपाते हैं, झूठ बोलकर भी सत्यवादी होने का नाटक रचते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि यदि हमने सच बोला तो पकड़े जायेंगे, आर्थिक हानि होगी । उनका स्वार्थ एकमात्र विषय और कषायका पोषण होता है । किन्तु साधुका स्वार्थ है आत्महित । अपनी आत्माका जिसमें हित हो वही उनका स्वार्थ है । उसीकी साधना के लिए वे साधु बने हैं। उसकी साधना में तो मौन ही सहायक है वार्तालाप नहीं । कहा है 'सर्व अर्थोंकी सिद्धिके लिए पुरुषोंको सदा मौन ही हितकर है। अथवा यदि मौन शक्य न हो तो ऐसा अतिप्रिय सत्य वचन बोलना चाहिए जो सब प्राणियोंका उपकारी हो । तथा यदि धर्मका नाश होता हो, क्रियाकाण्ड ध्वंस होता हो अथवा अपने सिद्धान्तके अर्थ में बिगाड़ होता हो तो उनका स्वरूप प्रकाशनार्थ बिना पूछे भी बोलना चाहिए' ॥४४॥ For Private & Personal Use Only आगे क्रोध, लोभ, भय और हास्यका त्याग तथा निर्दोष भाषण इन पाँच भावनाओंको भाते हुए सत्यव्रत के अच्छी तरह उद्योतनकी शिक्षा देते हैं ३३ ३ ६ ९ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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