SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५६ धर्मामृत ( अनगार) अथ सूनृतलक्षणमाह सत्यं प्रियं हितं चाहुः सूनतं सूनृतव्रताः। तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥४२॥ सत्यं-सत्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मभ्यर्थे साधु कुशलं सत्सु वा साधु हितं वचः। अप्रियं-कर्कशादिवचसामपि मृषाभाषणदोषकारित्वाविशेषात् । तदुक्तम् 'इहलोके परलोके येऽनृतवचनस्य वर्णिता दोषाः ।। कर्कशवचनादीनां त एव दोषा निबोद्धव्याः ॥[ ]॥४२॥ अथ साधुना सज्जनसौहित्याय समये वक्तव्यमित्यनुशास्ति साधुरत्नाकरः प्रोद्यद्दयापीयूषनिर्भरः । समये सुमनस्तृप्त्यै वचनामृतमुद्गिरेत् ॥४३॥ समये-प्रस्तावे प्रवचनविषये वा । सुमनसः-सज्जना देवाश्च ॥४३॥ फैलता है। जैसे सूर्यके उदित होते ही कमलोंका वन खिल उठता है उसी तरह ज्ञानसे विनम्र शिष्ट जन भी सत्यसे खिल उठते हैं । सरस्वती भी सत्यवादीपर रीझती है और लक्ष्मी भी बढ़ती है । अतः सदा सत्य ही बोलना चाहिए ॥४१॥ सत्यका स्वरूप कहते हैं जिन्होंने सत्य ही बोलनेका व्रत लिया है वे सत्य प्रिय और हित वचनको सत्यवचन कहते हैं । जो अप्रिय और अहितकारक है वह सत्य भी सत्य नहीं है ॥४२॥ विशेषार्थ-सत्य शब्द सत् शब्दसे बना है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक वस्तुको सत् कहते हैं। उसमें जो साधु अर्थात् कुशल हो वह सत्य है । अथवा सत्का अर्थ सज्जन भी है। जो साधु पुरुषों में हितकारक वचन है वह सत्य है। अर्थात् जिस वचनसे किसी तरह विसंवाद उत्पन्न न हो वह अविसंवादी वचन सत्य है । सत्य होनेके साथ ही प्रिय भी होना चाहिए जिसे सुनकर कान और हृदय आनन्दका अनुभव करें। किन्तु प्रिय होनेके साथ हितकारी भी होना चाहिए। किन्तु जो सत्यवचन अप्रिय और अहितकारक है वह सत्य नहीं है क्योंकि असत्य भाषणमें जो दोष हैं वे सब दोष कर्कश आदि वचनोंमें भी हैं। कहा भी है-'इस लोक और परलोकमें झूठ बोलनेके जो दोष कहे हैं वे ही दोष कर्कश वचन आदिके भी जानना चाहिए' ॥४२॥ साधुओंको सज्जन पुरुषोंका सच्चा हित करनेके लिए समयके अनुसार बोलना चाहिए ऐसी शिक्षा देते हैं उछलते हुए दया रूपी अमृतसे भरे हुए साधु रूपी समुद्रको देवताओंके तुल्य सज्जनोंकी तृप्तिके लिए प्रसंगके अथवा आगम के अनुसार वचन रूपी अमृतको कहना चाहिए ॥४३॥ विशेषार्थ-हिन्द पुराणोंके अनुसार जब देवताओं पर संकट आया तो उन्होंने समद का मन्थन किया और समुद्रने उन्हें अमृत दिया जिसे पीकर वे अमर हो गये। उसी रूपक के अनुसार साधु तो समुद्र के समान होता है क्योंकि समुद्रकी तरह ही उसमें गम्भीरता आदि गुण पाये जाते हैं। और जैसे समुद्र में अमृत भरा है वैसे ही साधुमें दया रूपी अमृत भरा होता है । सुमन देवोंको भी कहते हैं और सज्जनोंको भी। अतः जैसे समुद्रने समय पर देवोंको अमृतसे तृप्त किया था वैसे ही साधुओंको समयानुसार सज्जन पुरुषोंको वचनामृतसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy