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________________ ३ ६ ५ धर्मामृत (अनगार) मा स्थात् माभूद्भवानित्यर्थः । अविराम: -- प्राणिनः प्राणान्न व्यपरोपयामीति संकल्पाकरणलक्षणमविरमणम् । वामः - प्रतिकूलो दुःखकारीत्यर्थः । परिणामवत् - हिनस्मीति परिणतिर्यथा । उक्तं च'हिंसाया अविरमणं वधपरिणामोऽपि भवति हिसैव । तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥' [ पुरुषार्थ. ४८ ] ॥३२॥ अथ हिंसाया अहिंसायाश्च परिपाट्या फलोद्रेकं दृष्टान्तेन कथयित्वा अहिंसापरिणत्यै स्वहितोद्यतान्नितान्तमुद्यमति - २४८ यि विश्रुतदुःखपाकामाकर्ण्य हिंसां हितजागरूकाः । छेत्तुं विपत्तीमृगसेनवच्च श्रियं वरीतुं व्रतयन्त्वहिंसाम् ॥३३॥ वरीतुं - संभक्तुम् । व्रतयन्तु - वंतां ( ? ) अहिंसायां परिणमतामित्यर्थः ॥ ३३॥ की तरह मैं प्राणी के प्राणोंका घात नहीं करूँगा इस प्रकारके संकल्पका न करना रूप अविरति भी दुःखकारी है ||३२|| विशेषार्थ - -जबतक किसी बातका संकल्पपूर्वक त्याग नहीं किया जाता तबतक केवल उसे न करनेसे ही उसके फलसे छुटकारा नहीं होता । संकल्पपूर्वक त्याग न करना ही इस बातका सूचक है कि उस ओर प्रवृतिमें राग है। जैसे कोई आदमी किसी विषयका सेवन नहीं करता । उससे कहा जाये कि तुम उसका त्याग कर दो तो वह त्याग करनेके लिए यदि तैयार नहीं होता तो स्पष्ट है उसे उस विषयसे अरुचि नहीं है । और यह स्थिति विषय सेवनकी तरह ही दुःखकारक है । यही बात हिंसा न करते हुए भी हिंसाका त्याग न करने में लागू होती है । कहा भी है- 'हिंसासे विरक्त न होना और हिंसारूप परिणाम भी हिंसा ही है । इसलिए प्रमादरूप आत्मपरिणामोंके होनेपर निरन्तर प्राणघात होता है ।' क्रमसे हिंसा और अहिंसा के उत्कट फलको दृष्टान्तके द्वारा प्रकट करके आत्महित में तत्पर मुमुक्षु जनोंको अहिंसा परिणतिके लिए अत्यन्त उद्यम करनेकी प्रेरणा करते हैं धनश्रीने हिंसाका फल जो घोर दुःख भोगा वह आगमसे प्रसिद्ध है । उसे सुनकर अपने हित में जागरूक मुमुक्षु जनोंको विपत्तियोंको नष्ट करनेके लिए और लक्ष्मीका वरण करनेके लिए मृगसेनधीवर की तरह अहिंसापालनका व्रत लेना चाहिए ||३३|| विशेषार्थ - रत्नकरण्ड श्रावकाचार में हिंसा नामक पापके करनेमें धनश्रीको प्रसिद्ध कहा है | धनश्री वणिक् धनपालकी पत्नी थी । उसके एक पुत्र था और एक पुत्री थी । उसने एक बालक कुण्डलको पाला था । सेठके मरने पर धनश्री उस पालित कुण्डलमें अनुरक्त हो गयी। जब उसका पुत्र समझदार हुआ तो धनश्रीने उसे मारनेका प्रबन्ध किया । यह बात उसकी पुत्रीको ज्ञात हो गयी और उसने अपने भाईको सावधान कर दिया । प्रतिदिन कुण्डल पशु चराने जंगल में जाता था। एक दिन धनश्रीने अपने पुत्रको पशु चराने भेजा । सावधान पुत्रने पशुओंको जंगलमें छोड़ दिया और एक ठूंठको अपने वस्त्र पहिराकर स्वयं छिप गया । पीछेसे कुण्डल उसे मारनेके लिये गया और उसने ठूंठको गुणपाल जानकर उसपर खङ्गसे प्रहार किया। उसी समय गुणपालने उसी खड्गसे उसका वध कर दिया और घर लौट आया । धनश्रीने उससे पूछा, कुण्डल कहाँ है ? रक्तसे सना खड्ग दिखा कर गुणपालने कहा- इससे पूछो । धनश्रीने तत्काल उसी खड्गसे अपने पुत्रको मार दिया। कोलाहल होनेपर धनश्रीको पकड़कर राजदरबार में उपस्थित किया गया । राजाने उसके नाक कान काटकर गधे पर बैठाकर देश से निकाल दिया । मरकर उसने नरकादि गतिमें भ्रमण किया । इसी तरह मृग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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