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________________ २४७ चतुर्थ अध्याय अथ हिंसाया दुर्गतिदुःखैकफलत्वमुदाहरणेन प्रव्यक्तीकर्तुमाहमध्ये मस्करजालि दण्डकवने संसाध्य विद्या चिरात् कृष्टं शम्बुकुमारकेण सहसा तं सूर्यहासं दिवः। धृत्वायान्तमसिं बलाद रभसया तांच्छिन्दता तच्छिर छिन्नं यत्किल लक्ष्मणेन नरके ही तत्खरं भुज्यते ॥३१॥ मध्ये मस्करजालि-वंशजालिमध्ये । चिरात्-षण्मासात् । शम्बुकुमारकेण-सूर्पणखापुत्रेण । ६ रभसया-अविमृश्यकारितया । तां-वंशजालिम् ॥३१॥ अथ हिंसायाः परिणतिरिवाविरतिरपि हिंसात्वात्तत्फलप्रदेति हिंसां न करोमीति स्वस्थंमन्यो भवान्माभूदिति ज्ञानलवदुर्विदग्धं बोधयति स्थान्न हिस्यां न नो हिंस्यामित्येव स्यां सुखीति मा । अविरामोऽपि यद्वामो हिंसायाः परिणामवत् ॥३२॥ विशेषार्थ-जो हिंसा करनेका विचार करता है और प्रारम्भ करके भी बाधा आ जानेसे कर नहीं पाता वह भी प्रायः इसी जन्ममें भयंकर रोगोंसे सदा पीड़ित रहता है । किन्तु ऐसा भी देखा जाता है कि ऐसे लोगोंको इस जन्ममें कोई पीड़ा नहीं होती। इसलिए 'प्रायः' पद दिया है जो बतलाता है कि दैववश यदि उस जन्म में पीड़ा नहीं होती तो जन्मान्तरमें अवश्य पीडा होती है। तथा हिंसाको दर्गतियोंकी सगी बहन कहा है क्योंकि हिंसक जीवोंको अवश्य ही नरकादि गतियोंमें जाकर दुःख उठाना पड़ता है ॥३०॥ हिंसाका एकमात्र फल दुर्गतिका दुःख है यह बात उदाहरणसे स्पष्ट करते हैं पद्मपुराणमें कहा है कि शम्बुकुमारने दण्डकवनमें बाँसोंके झुरमुट में बैठकर छह मास तक विद्या सिद्ध करके सूर्यहास खड्ग प्राप्त करनेका उपक्रम किया था। जब वह खड्ग आकाशसे आया तो सहसा उसे ग्रहण करके लक्ष्मणने बिना विचारे बलपूर्वक उस वंशजालको उस खड्गसे काटा तो शम्बुकुमारका सिर कट गया। उसीका अतिदुःसह फल नरकमें आज भी लक्ष्मण भोगते हैं यह बड़े खेदकी बात है ॥३१॥ विशेषार्थ-पद्मपुराणमें कहा है कि जब रामचन्द्रजी सीता और लक्ष्मणके साथ वनवासी होकर दण्डकवनमें पहुंचे तो वहाँ रावणकी बहन शूर्पणखाका पुत्र बाँसोंके झुरमुट में बैठकर छह माससे विद्या सिद्ध करता था। देपोपनीत खड्ग आकाशमें लटक रहा था। लक्ष्मण वनमें घूमते हुए उधरसे निकले और उन्होंने लपककर सूर्यहास खड्ग हस्तगत कर लिया। उसकी तीक्ष्णता जानने के लिए उन्होंने उसी बाँसोंके झुरमुटपर उसका प्रहार किया। फलतः बाँसोंके साथ उनके भीतर बैठे शम्बुकुमारका सिर भी कट गया। यह घटना ही आगे चलकर सीताहरण और राम-रावणके युद्ध में कारण बनी। फलतः लक्ष्मण मरकर नरकमें गये ॥३१॥ आगे ग्रन्थकार अज्ञानीको समझाते हैं कि हिंसा करनेकी तरह हिंसाका त्याग न करनेसे भी हिंसाका ही फल मिलता है इसलिए मैं हिंसा नहीं करता ऐसा मानकर आप निश्चिन्त न होवें हे सुखके इच्छुक जीव ! मैं यदि अहिंसाका पालन नहीं करता तो हिंसा भी नहीं करता, अतः मुझे अवश्य सुख प्राप्त होगा, ऐसा मानकर मत बैठ। क्योंकि हिंसाके परिणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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