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________________ २३७ चतुर्थ अध्याय 'मिथ्यादृक् शासनो मिश्रोऽसंयतोऽणुव्रतस्ततः । सप्रमादेतरापूर्वनिवृत्तिकरणास्तथा ।। 'सूक्ष्मलोभोपशान्ताख्यौ निर्मोहो योग्ययोगिनी। गुणाश्चतुर्दशेत्येते मुक्ता मुक्तगुणाः परे ॥ [ . मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यक् दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण उपशमक क्षपक, अनिवृत्तिबादरसाम्पराय उपशमक क्षपक, सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक क्षपक, उपशान्त कषाय वीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोगकेवली, अयोगकेवली ये चौदह गुणस्थान है। इनमें संसार के सब जीव अपनेअपने परिणामोंके अनुसार विभाजित है। मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जिनकी दृष्टि मिथ्या होती है उन जीवोंको मिथ्यादृष्टि कहते हैं। मिथ्यादृष्टिको तत्त्वार्थका श्रद्धान नहीं होता। मिथ्यात्व कर्मका उदय दूर होनेपर जिस जीवकी अन्तरात्मा अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे कलुषित होती है उसे सासादन-सम्यग्दृष्टि कहते हैं। आसादन कहते हैं सम्यक्त्वकी विराधनाको । जो आसादनसे सहित है वह सासादन है। अर्थात् जिसने सम्यक्दर्शनको तो विनष्ट कर दिया है और मिथ्यात्व कर्मके उदयसे होनेवाले परिणामको प्राप्त नहीं किया है किन्तु मिथ्यात्वके अभिमुख है वह सासादन है। जिस जीवकी दृष्टि समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकारकी होती है उसे सम्यमिथ्यादृष्टि कहते हैं। अर्थात् सम्यमिथ्यात्वकर्मके उदयसे तत्त्वार्थके श्रद्धान और अश्रद्धानरूप आत्माको सम्यमिथ्यादृष्टि कहते हैं । औपशमिक या क्षायोपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्वसे यक्त होने के साथ चारित्र मोहनीयके उदय से अत्यन्त अविरतिरूप परिणामवाले जीवको असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। इससे ऊपरके गुणस्थानोंमें सम्यग्दर्शन नियमसे होता है। जो सम्यग्दृष्टि एक ही समय त्रसहिंसासे विरत और स्थावर जीवोंकी हिंसासे अविरत होता है उसे विरताविरत या संयतासंयत कहते हैं। जो संयमसे युक्त होते हुए भी प्रमादसे युक्त होता है उसे प्रमत्तसंयत कहते हैं । संयमके दो भेद हैं-प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम । दोनों प्रकारके संयमको अपनाये हुए भी पन्द्रह प्रमादोंके कारण जिसका चारित्रपरिणाम कुछ स्खलित होता है वह प्रमत्तसंयत है। संयमको धारण किये हुए जो पूर्वोक्त प्रमादोंके न होनेसे अस्खलित संयम पालता है वह अप्रमत्त संयत है। यहाँसे आगे चार गुणस्थानोंकी दो श्रेणियाँ होती हैं-उपशमश्रेणी, झपकश्रेणी। जिसमें आत्मा मोहनीय कर्मका उपशम करते हुए चढ़ता है वह उपशमश्रेणी है और जिसमें मोहनीय कर्मका क्षय करते हुए चढ़ता है वह क्षपकश्रेणी है। करण शब्दका अर्थ परिणाम है। और जो पहले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। अर्थात विवक्षित समयवर्ती जीवोंसे भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम अपूर्व होते हैं। इस तरह प्रत्येक समयमें होनेवाले अपूर्व परिणामोंके कारण आठवें गुणस्थानको अपूर्वकरण कहते हैं। इसमें न तो कर्मप्रकृतियोंका उपशम होता है और न क्षय होता है। किन्तु पहले और आगे होनेवाले उपशम और क्षयकी अपेक्षा उपचारसे उपशमक या क्षपक कहते हैं। समान समयवर्ती जीवोंके परिणामोंकी भेदरहित वृत्तिको निवृत्ति कहते हैं। और साम्परायका अर्थ कषाय है । बादरका अर्थ स्थूल है । अतः स्थूल कषायोंको बादर साम्पराय कहते हैं और अनिवृत्तिरूप बादर साम्परायको अनिवृत्ति बादर साम्पराय कहते हैं। अनिवृत्तिरूप परिणामोंसे कर्मप्रकृतियोंका स्थूलरूपसे उपशम या क्षय होता है । साम्पराय अर्थात् कषाय जहाँ सूक्ष्मरूपसे उपशान्त या क्षय होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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