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________________ २३६ धर्मामृत ( अनगार) पर्याप्तिश्चाहारपरिणामादिशक्तिकारणनिष्पत्तिरुच्यते । श्लोकः 'आहारपरिणामादि शक्तिकारणसिद्धयः । पर्याप्तयः षडाहारदेहाक्षोच्छासवाङ्मनः ॥' [ इमे च जीवसमासाश्चतुर्दश 'समणा अमणा णेया पंचेंदिय णिम्मणा परे सव्वे । बादर सुहुमेइंद्री सव्वे पज्जत्त इदरा य । [ द्रव्य सं. १२ ] तथा गुणस्थानर्मार्गणाभिश्च विस्तरेणागमतो जीवान्निश्चित्य रक्षेत् । गुणस्थानानि यथा आहारपरिणाम आदि शक्तिके कारणकी निष्पत्तिको पर्याप्ति कहते हैं। कहा है'आहारपरिणाम आदि शक्तिके कारणकी सिद्धिको पर्याप्ति कहते हैं। अर्थात् आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गगाके परमाणुओंको शरीर इन्द्रिय आदि रूप परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको पर्याप्ति कहते हैं। वे छह हैं।' चौदह जीवसमास इस प्रकार हैं-पंचेन्द्रिय जीव मनसहित भी होते हैं और मनरहित भी होते हैं। शेष सब जीव मनरहित होते हैं। तथा एकेन्द्रिय जीव बादर भी होते हैं और सूक्ष्म भी होते हैं। इस तरह एकेन्द्रिय बादर, एकेन्द्रिय सूक्ष्म, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रियअसंज्ञी, पंचेन्द्रियसंज्ञी ये सातों पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं। इस तरह चौदह जीवसमास होते हैं। विस्तारसे ९८ जीवसमास होते हैंतियचके ८५, मनुष्यके ९, नारकीके दो और देवोंके दो। तियचके ८५ जीवसमासोंमें-से सम्मूर्छनके उनहत्तर और गर्भजके १६ जीवसमास होते हैं। सम्मूर्छनके उनहत्तरमें-से एकेन्द्रियके ४२, विकलत्रयके ९ और पंचेन्द्रियके १८ जीवसमास होते हैं। एकेन्द्रियके ४२ जीवसमास इस प्रकार है-पृथिवी, जल, तेज, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद इन छहोंक बादर और सूक्ष्मकी अपेक्षासे १२, तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येक अप्रतिष्ठित प्रत्येकको मिलानेसे १४ होते हैं। इन चौदहोंके पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तककी अपेक्षासे ४२ जीवसमास होते हैं। तथा दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रियके पर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तककी अपेक्षा ९ भेद विकलेन्द्रियके होते हैं। जलचर, थलचर, नभचर इन तीनोंके संज्ञी और असंज्ञीकी अपेक्षा ६ भेद होते हैं। और इनके पर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तककी अपेक्षा अठारह भेद पंचेन्द्रिय तिर्यचके होते हैं। इस तरह सम्मछन पंचेन्द्रियके ६९ भेद होते हैं। गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यचके १६भेद इस प्रकार है-कर्मभूमिजके १२ और भोगभूमिजके चार। जलचर, थलचर, नभचरके संज्ञी और असंज्ञीके भेदसे छह भेद होते हैं और इनके पर्याप्तक, नित्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तककी अपेक्षा १२ भेद होते है। भोगभूमिमें थलचर और नभचर ही होते हैं जलचर नहीं होते और वे पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक होते हैं। इस तरह उनके चार भेद होते हैं। मनुष्योंके नौ भेद इस प्रकार हैं-म्लेच्छ मनुष्य, भोगभूमिज और कुभोगभूमिके मनुष्य पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक होते हैं । आर्यखण्डके मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त भी होते हैं इस तरह नौ भेद होते हैं। नारकी और देव पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक होते हैं अतः इन दोनोंके दो-दो भेद होते हैं। तथा गुणस्थान और मार्गणाओंके द्वारा भी विस्तारसे जीवोंका निश्चय करके उनकी रक्षा करनी चाहिए । गुणस्थान इस प्रकार कहे हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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