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________________ ३ २२६ ९ धर्मामृत (अनगार ) अथ सकलेतरविरत्याः स्वामिनो निर्दिशति - गलद्वृत्तमोहः — क्षयोपशमरूपतया हीयमानश्चारित्रमोहो यस्यासौ । सामायिकछेदोपस्थापनयोः संयमासंयमस्य च विवक्षितत्वात्तत्त्रयस्यैवात्रत्येदानींतनजीवेषु संभवात् । कात्स्यत् — साकल्यतः । अंशतः - ६ एकदेशेन ॥ २१ ॥ अथ चतुर्दशभिः पद्यैरहिंसाव्रतमाचष्टे । स्फुरद्बोधो गलवृत्तमोहो विषयनिःस्पृहः । हिंसादेविरतः कायद्यतिः स्याच्छ्रावकोंऽशतः ॥२१॥ Jain Education International सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते यत् त्रसस्थावराङ्गिनाम् । प्रमत्तयोगतः प्राणा द्रव्यभावस्वभावकाः ॥२२॥ विनाश मोक्ष है । इसलिए मुमुक्षुको अव्रतोंकी तरह व्रतोंको भी छोड़ देना चाहिए । अत्रोंको छोड़कर व्रतों में निष्ठित रहे और आत्माके परमपदको प्राप्त करके उन व्रतोंको भी छोड़ दे ।' अत पापबन्धका कारण है तो व्रत पुण्यबन्धका कारण है इसलिए यद्यपि अव्रतकी तरह व्रत भी त्याज्य है किन्तु अत्रत सर्वप्रथम छोड़ने योग्य है और उन्हें छोड़नेके लिए व्रतोंको स्वीकार करना आवश्यक है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहको स्वीकार किये बिना हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह पापसे नहीं बचा जा सकता और इनसे बचे बिना आत्माका उद्धार नहीं हो सकता । शास्त्रकार कहते हैं कि परमपद प्राप्त होनेपर व्रतों को भी छोड़ दे । परमपद प्राप्त किये बिना पुण्यबन्धके भय से व्रतोंको स्वीकार न करनेसेतो पापमें ही पड़ना पड़ेगा । केवल सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे परमपद प्राप्त नहीं हो सकता। उसके लिए तो सम्यक् चारित्र ही कार्यकारी है और सम्यक् चारित्रका प्रारम्भ व्रतों से ही होता है । ये व्रत ही हैं जो इन्द्रियोंको वश में करने में सहायक होते हैं और इन्द्रियोंके वशमें होनेपर ही मनुष्य आत्माकी ओर संलग्न होकर परमपद प्राप्त करने में समर्थ होता है । अतः व्रतका माहात्म्य कम नहीं है । उनको अपनाये बिना संसारसागरको पार नहीं किया जा सकता ॥२०॥ व्रत के दो भेद हैं-सकलविरति और एकदेशविरति । दोनोंके स्वामी बतलाते हैंजो पाँचों पापोंसे पूरी तरहसे विरत होता है उसे यति कहते हैं और जो एकदेशसे विरत होता है उसे श्रावक कहते हैं । किन्तु इन दोनोंमें ही तीन बातें होनी आवश्यक हैं१. जीवादि पदार्थों का हेय, उपादेय और उपेक्षणीय रूपसे जाग्रत् ज्ञान होना चाहिए। २. यतिके प्रत्याख्यानावरण क्रोध- मान-माया-लोभरूप चारित्रमोहका क्षयोपशम होना चाहिए और श्रावकके अप्रत्याख्यानावरण क्रोध- मान-माया-लोभरूप चारित्रमोहका क्षयोपशम होना चाहिए, क्योंकि इस कालमें इस क्षेत्रमें जीवोंके सामायिक और छेदोपस्थापना संयम तथा संयमासंयम ही हो सकते हैं । ३. देखे गये, सुने गये और भोगे गये भोगोंमें अरुचि होना चाहिए । इस तरह इन तीन विशेषताओंसे विशिष्ट व्यक्ति उक्त व्रत ग्रहण करनेसे व्रती होता है ||२१|| आगे चौदह पद्योंसे अहिंसात्रतको कहते हैं । सबसे प्रथम हिंसाका लक्षण कहते हैंप्रमत्त जीवके मन-वचन-कायरूप योगसे अथवा कषाययुक्त आत्मपरिणाम के योगसे स और स्थावर प्राणियोंके द्रव्यरूप और भावरूप प्राणोंका घात करनेको हिंसा कहते हैं ||२२|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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