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________________ चतुर्थ अध्याय २२५ अथ व्रतमहिमानं वर्णयति__ अहो व्रतस्य माहात्म्यं यन्मुखं प्रेक्षतेतराम् । उद्योतेऽतिशयाधाने फलसंसाधने च दृक् ॥२०॥ प्रेक्षतेतरां-ज्ञानापेक्षया तरां प्रत्ययः । उद्योतादिषु ज्ञानमुखस्यापि सम्यक्त्वेनापेक्षणीयत्वात् । अतिशयाधाने-कर्मक्षपणलक्षणशक्त्युत्कर्षसम्पादने । फलसंसाधने–इन्द्रादिपदप्रापणपूर्वकनिर्वाणलक्षणस्य नानाविधापन्निवारणलक्षणस्य च फलस्य साक्षादुत्पादने । एतेन संक्षेपतः सम्यक्त्वचारित्रे द्वे एवाराध्ये, सम्यक्- ६ चारित्रमेकमेव चेत् फलं स्यात् ॥२०॥ क्षमाश्रमणने विशेषावश्यक भाष्य' (गा. १२४० आदि) में कहा है। रात्रिभोजन विरमण मुनिका मूल गुण है क्योंकि जैसे अहिंसा आदि पाँच महाव्रतोंमें-से यदि एक भी न हो तो महाव्रत पूर्ण नहीं होते । इसी तरह रात्रिभोजनविरतिके अभावमें भी महाव्रत पूर्ण नहीं होते। अतः मूलगुणों (महाव्रत) के ग्रहणमें रात्रिभोजनविरतिका ग्रहण हो ही जाता है। इससे स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परामें भी रात्रिभोजन विरमण नामका षष्ठ व्रत नहीं रहा है ॥१९॥ व्रतकी महिमाका वर्णन करते हैं___शंका आदि मलोंको दूर करने में, कोका क्षय करनेवाली आत्मशक्तिमें, उत्कषता लाने में और इन्द्रादि पदको प्राप्त कराकर मोक्षरूप फल तथा अनेक प्रकारकी आपत्तियोंका निवारणरूप फलको साक्षात् उत्पन्न करनेमें सम्यग्दर्शनको जिसका मुख उत्सुकतापूर्वक देखना पड़ता है उस व्रतका माहात्म्य आश्चर्यकारी है ।।२०।। विशेषार्थ-यहाँ लक्षणासे 'व्रतके मुख' का अर्थ व्रतकी प्रधान सामर्थ्य लेना चाहिए । तत्त्वार्थ सूत्रके सातवें अध्यायमें आस्रव तत्त्वका वर्णन है और उसके पहले ही सूत्रमें व्रतका स्वरूप कहा है। उसकी टीका सर्वार्थसिद्धिमें यह प्रश्न किया गया है कि व्रतको आस्रवका हेतु बतलाना तो उचित नहीं है उसका अन्तर्भाव तो संवरके कारणों में होता है। आगे नौवें अध्यायमें संवरके हेतु गुप्ति समिति कहे गये हैं उनमें संयम धर्ममें व्रत आते हैं ? इसका उत्तर दिया गया है कि नौवें अध्यायमें तो संवरका कथन है और संवर निवृत्तिरूप होता है। किन्तु इन व्रतोंमें प्रवृत्ति देखी जाती है। हिंसा, असत्य और बिना दी हुई वस्तुका ग्रहण आदि छोड़कर अहिंसा, सत्यवचन और दी हुई वस्तुका ग्रहण आदि क्रियाकी प्रतीति होती है । तथा ये व्रत गुप्ति आदि संवरके साधनोंके परिकर्म हैं। जो साधु व्रतोंमें अभ्यस्त हो जाता है वह सुखपूर्वक संवर करता है इसलिए व्रतोंका पृथक् कथन किया है। सर्वार्थसिद्धिके रचयिता इन्हीं पूज्यपादस्वामीने समाधि तन्त्रमें कहा है--'अव्रत अर्थात् हिंसा आदिसे अपुण्य अर्थात् पापका बन्ध होता है और व्रतोंसे पुण्यबन्ध होता है। पुण्य-पाप दोनोंका १. 'जम्हा मूलगुणच्चिय न होंति तविरहियस्स पडिपुन्ना । तो मूलगुणग्गहणे तग्गहणमिहत्थओ नेयं ॥'-विशेषा. १२४३ गा. 'अपुण्यमव्रतः पुण्यं व्रतर्मोक्षस्तयोर्व्ययः ।। अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥ अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः। त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः' ।।-८३-८४ श्लो. । २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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