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________________ द्वितीय अध्याय १७७ यानारोप्य प्रकृतिसुभगानङ्गनायाः पुमांसं, पुंसश्चास्यादिषु कविठका मोहयन्त्यङ्गनां द्राक् । . तानिन्द्वादोन्न परमसहन्नुन्मदिष्णून्वपुस्ते, ___ स्रष्टाऽस्राक्षीद् ध्रुवमनुपमं त्वां च विश्वं विजिष्णुम् ॥८९॥ आरोप्य-कल्पयित्वा। आस्यादिषु-मुखनयनादिषूपमेयेषु । इन्द्वादीन्-चन्द्रकमलादीनुपमानभूतान् । उन्मदिष्णून्-स्वोत्कर्षसंभाविनः । अनुपमं-मुखादिषु चन्द्राद्युपमामतीतं प्रत्युत चन्द्रादीनप्युपमेयान् ६ कतूं सुष्टवानिति भावः। त्वामित्यादि-त्वामपि सम्यक्त्वबलेन समस्तजगद्विजयं साधु कुर्वाणमसहमानो विधाता तव शरीरमनन्योपमं व्यधादित्यहं संभावयामि । इयमत्र भावना भवान् सम्यक्त्वमाहात्म्याद् विश्वं व्यजेष्यत् यदि हतविधिस्तादृक् सौरूप्यमुत्पाद्य तन्मदेन सम्यक्त्वं नामलिनयिष्यत् ॥८९॥ अथ लक्ष्मीमदं निषेधुं वक्रभणित्या नियुक्त या देवैकनिबन्धना सहभुवां याऽऽपद्धियामामिषं, ___ या विस्रम्भमजस्रमस्यति यथासन्नं सुभक्तेष्वपि । या दोषेष्वपि तन्वती गुणधियं युङ्क्तेऽनुरक्त्या जनान्, स्वभ्यस्वान्न तया श्रियासु ह्रियसे यान्त्यान्यमान्ध्यान्न चेत् ॥१०॥ ये कविरूपी ठग जिन स्वभावसे ही सुन्दर चन्द्रमा, कमल आदि उपमानभूत पदार्थोंको नारीके मुख नयन आदि उपमेय भूत अंगोंमें आरोपित करके तत्काल पुरुषको मोहित करते हैं और पुरुषके अंगोंमें आरोपित करके नारीको तत्काल मोहित करते हैं। मैं ऐसा मानता हूँ कि निश्चय ही उन्मादकी ओर जानेवाले उन चन्द्र आदि को न केवल सहन न करके ब्रह्माने तुम्हारे अनुपम शरीरको रचा है किन्तु सम्यक्त्वके बलसे समस्त जगत्को विजय करनेवाले तुमको सहन न करके ब्रह्माने तुम्हारा अनुपम शरीर रचा है ॥८९॥ विशेषार्थ-लोकोत्तर वर्णन करने में निपुण कविगण अपने काव्योंमें स्त्रीके मुखको चन्द्रमाकी, नेत्रोंको कमलकी उपमा देकर पुरुषोंको स्त्रियोंकी ओर आकृष्ट करते हैं और पुरुषोंके अंगोंको उपमा देकर स्त्रीको पुरुषोंकी ओर आकृष्ट करते हैं। इसलिए कवियोंको ठग कहा है क्योंकि वे पुरुषार्थ का घात करते हैं। इसके साथ ही ग्रन्थकारने यह संभावना व्यक्त की है कि ब्रह्माने इन चन्द्रमा आदिके अहंकारको केवल सहन न करके ही पुरुषके अंगोंको उनसे भी सुन्दर बनाया है, बल्कि उसने सोचा कि यह सम्यग्दृष्टि अपने सम्यक्त्वके माहात्म्यसे विश्वको जीत लेगा इसलिए उसने तुम्हारा शरीर इतना सुन्दर बनाया कि तुम अपनी सुन्दरताके मदसे अपने सम्यक्त्वको दूषित कर लो। जिससे तुम जगत्को न जीत सको ।।८।। वक्रोक्तिके द्वारा लक्ष्मीका मद त्यागने की प्रेरणा करते हैं जो लक्ष्मी एकमात्र पुराकृत शुभकर्मसे प्राप्त होती है, जो लक्ष्मी एक साथ आनेवाली विपत्तियों और भीतियोंका स्थान है, जो लक्ष्मी अपने अत्यन्त भक्त निकट सम्बन्धी पुत्र भाई आदिमें भी निरन्तर विश्वासको घटाती है, जो लक्ष्मी दोषोंमें भी गुणोंकी कल्पना कराकर लोगोंको अनुरागी बनाती है, हे भाई, युक्त-अयुक्त विचारसे विकल होनेके कारण ऐसी लक्ष्मी तुम्हें छोड़कर अन्य पुरुषके पास जाये इससे पहले ही तू अपनेको उक्त लक्ष्मीसे बड़ा मान ॥९॥ २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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