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________________ धर्मामृत ( अनगार) पुंसोऽपि क्षतसत्त्वमाकुलयति प्रायः कलकैः कलौ, सद्गवृत्तवदान्यतावसुकलासोरूप्यशौर्यादिभिः । स्त्रीपुंसः प्रथितैः स्फुरत्यभिजने जातोऽसि चेद्देवत स्तज्जात्या च कुलेन चोपरि मृषा पश्यन्नधः स्वं क्षिपेः॥८॥ आकुलयति-दूषयति सति । वदान्यता-दानशौण्डत्वम् । वसु--धनम् । कला:-गीतादयः । शौर्यादि-आदिशब्दान्नय-विनय-गाम्भीर्यादि। अभिजने-अन्वये । जात्या-मातृपक्षेण । कूलेनपितृपक्षेण । उपरि-प्रक्रमात सधर्माणाम । सामिकापमानमेव हि सम्यक्त्वस्यातिचारः । तदुक्तम् 'स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गविताशयः। सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैविना ।' [रत्न. श्राव. २६] मृषा-जातिकुलयोः परमार्थतः शुद्धेनिश्चेतुमशक्यत्वात् । नु–किम् । अधः-सम्यक्त्वविराधनायां ही (-न)पदस्य सुघटत्वात् । तथा चोक्तम् 'जातिरूपकुलैश्वर्यशीलज्ञानतपोबलः। कुर्वाणोऽहंकृति नीचं गोत्रं बध्नाति मानवः ॥' [ ] ॥८८॥ अथ सौरूप्यमदाविष्टस्य दोषं दर्शयति हे जाति और कुलसे अपनेको ऊँचा माननेवाले ! पूर्व पुण्यके उदयसे यदि तू सम्यक्त्व, सदाचार, दानवीरता, धन, कला, सौन्दर्य, वीरता आदि गुणोंसे प्रसिद्ध स्त्रीपुरुषों के द्वारा जनताके मनमें चमत्कार करनेवाले कुलमें पैदा हुआ है तो इस कलि कालमें तो स्त्रियोंकी तो बात ही क्या, पुरुषोंका भी मनोबल प्रायः अपवादोंसे गिर जाता है। इसलिए जाति और कुलके मिथ्या अभिमानसे तू अन्य साधर्मियोंसे ऊपर मानकर अपनेको नीचे क्यों गिराता है ।।८८॥ विशेषार्थ-आगममें जाति आदिके मदको बहुत बुरा बतलाया है। कहा है 'जाति, रूप, कुल, ऐश्वर्य, शील, ज्ञान, तप और बलका अहंकार करनेवाला मनुष्य नीच गोत्रका बन्ध करता है।' __इसके सिवाय इस कलिकालमें जाति और कुलकी उच्चताका अभिमान इसलिए भी व्यर्थ है कि कुल नारीमूलक है। और कलिकालमें कामदेवका साम्राज्य रहता है। कब कहाँ किसका मन विकृत होकर शीलको दूषित कर दे इसका कोई ठिकाना नहीं है अतः जातिकुलका अभिमान व्यर्थ है। कहा भी है _ 'संसार अनादि है, कामदेवकी गति दुर्निवार है और कुलका मूल नारी है ऐसी स्थितिमें जातिकी कल्पना ही बेकार है' ।।८८।। सौन्दर्यका मद करनेवाले सम्यग्दृष्टि का दोष बतलाते हैं १. 'अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे । कुले च कामिनीमूले का जातिपरिकल्पना ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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