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________________ द्वितीय अध्याय १७१ ६ अथाकांक्षापराणां सम्यक्त्वफलहानि कथयति यल्लीलाचललोचनाञ्चलरसं पातुं पुनर्लालसाः स्वश्रीणां बहु रामणीयकमदं मृदनन्त्यपीन्द्रावयः । तां मुक्तिश्रियमुत्कयद्विदधते सम्यक्त्वरत्नं भव श्रीदासीरतिमूल्यमाकुलधियो धन्यो ह्यविद्यातिगः ॥७६॥ लालसाः-अतिलम्पटाः । मृद्नन्ति-संचूर्णयन्ति । उत्कयद्-उत्कण्ठितां कुर्वत् । उक्तं च- 'उदस्वितैव माणिक्यं सम्यक्त्वं भवजैः सुखैः। विक्रीणानः पुमान् स्वस्य वञ्चकः केवलं भवेत् ॥ [ सोम. उपा. ] ॥७६।। अथ सम्यक्त्वादिजनितपुण्यानां संसारसुखाकाङ्क्षाकरणे न किमपि फलमिति दर्शयति तत्त्वश्रद्धानबोधोपहितयमतपःपात्रदानाविपुण्यं, यद्गीर्वाणाग्रणीभिः प्रगुणयति गुणैरहणामहणीयैः । तत्प्राध्वंकृत्य बुद्धि विधुरयसि मुधा क्वापि संसारसारे, तत्र स्वैरं हि तत् तामनुचरति पुनर्जन्मनेऽजन्मने वा ॥७७॥ अहंणां-पूजाम् । प्राध्वंकृत्य-बध्वा। तामनु-तया बुद्धया सह। पूनर्जन्मने-उत्तमदेवमनुष्यत्वलक्षणपुनर्भवार्थे । अजन्मने-अपुनर्भवार्थम् ॥७७॥ संसारके सुखकी आकांक्षा करनेवालों के सम्यक्त्वके फलकी हानि बतलाते हैं जिसकी लीलासे चंचल हुए नेत्रोंके कटाक्षरूपी रसको पीनेके लिए आतुर इन्द्रादि भी अपनी लक्ष्मियोंके-देवियोंके सम्भोग प्रवृत्तिके विपुल मदको चूर-चूर कर देते हैं उस मुक्तिरूपी लक्ष्मीको उत्कण्ठित करनेवाले सम्यक्त्वरूपी रत्नको विषय सेवनके लिए उत्सुक मनोवृत्तिवाले पुरुष संसारकी लक्ष्मीरूपी दासीके साथ सम्भोग करनेके भाडेके रूप में दे डालते हैं। अतः जो अविद्याके जालमें नहीं फँसता वह धन्य है ।।७६।। विशेषार्थ-सम्यक्त्व रूपी रत्न मुक्तिरूपी लक्ष्मीको आकृष्ट करनेवाला है क्योंकि सम्यग्दृष्टि ही मुक्तिलक्ष्मीका वरण करता है। और मुक्तिलक्ष्मीका वरण करनेके लिए इन्द्रादिक भी इतने उत्सुक रहते हैं कि वे स्वर्गके सुखोंमें मग्न न होकर पुनः मनुष्यजन्म प्राप्त करके तपश्चरण करनेकी इच्छा रखते हैं। ऐसे सम्यक्त्व रत्नके बदलेमें जो विषयसुखकी आकांक्षा करता है वह मनुष्य उस विषयी मनुष्यके तुल्य है जो किसी दासीके साथ सम्भोग करनेके बदले में चिन्तामणि रत्न दे डालता है। कहा भी है ___ 'जो सांसारिक सुखोंके बदले में सम्यक्त्वको बेचता है वह छाछके बदलेमें माणिक्यको बेचनेवाले मनुष्यके समान केवल अपनेको ठगता है' ॥७६॥ आगे कहते हैं कि सम्यक्त्व आदिसे पुण्यकर्मका संचय करनेवाले मनुष्योंको संसार सुखकी आकांक्षा करनेसे कुछ भी लाभ नहीं होता तत्त्वश्रद्धान और सम्यग्ज्ञानसे विशिष्ट यम, तप, पात्रदान आदिके द्वारा होनेवाला पुण्य पूजनीय तीर्थकरत्वादि गुणोंके कारण इन्द्रादिके द्वारा पूजा कराता है। तथा तेरी कल्पनाकी अपेक्षा न करके स्वयं ही तेरी भावनाके अनुसार उत्तम देव और मनुष्य रूपमें पुनर्जन्मके लिए या अपुनर्जन्म-मोक्ष के लिए प्रवृत्त होता है। ऐसे महान् पुण्यका बन्ध करके तू संसारके रसमें व्यर्थ ही अपनी बुद्धिको परेशान करता है कि इस पुण्यके उदयसे मुझे अमुक अभ्युदय प्राप्त होवे ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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