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________________ १७० धर्मामृत ( अनगार) 'यत्तु सांसारिकं सौख्यं रागात्मकमशाश्वतम् । स्वपरद्रव्यसंभूततृष्णासंतापकारणम् ।। मोह-द्रोह-मद-क्रोध-माया-लोभनिबन्धनम् । दुःखकारणबन्धस्य हेतुत्वाद् दुःखमेव तत् ॥' [ तत्त्वानुशा. २४३-२४४ ] अपि च 'सपरं बाधासहिदं विच्छिन्नं बन्धकारणं विसमं । जं इंदिएहि लद्धं तं सुक्खं दुक्खमेव तहा ।।' [प्रवचनसार ११७६ ] ___ एकः-दृग्मोहोदयसहायरहितः। सुदृष्टीनां तन्निमित्तभ्रान्त्यसंभवादन्यथा मिथ्याज्ञानप्रसङ्गात् । तथा ९ चोक्तम् 'उदये यद्विपर्यस्तं ज्ञानावरणकर्मणः । तदस्थास्नुतया नोक्तं मिथ्याज्ञानं सुदृष्टिषु ॥ [ अमित. पं. सं. ११२३३] इदं-इन्द्रादिपदं संसारसौख्यं वा । उदियात्-उद्भूयात् । एषैव न कृष्यादिना धान्यधनादावाकांक्षाऽन्यथातिप्रसङ्गात् । उक्तं च 'स्यां देवः स्यामहं यक्षः स्यां वा वसुमतीपतिः । यदि सम्यक्त्वमाहात्म्यमस्तीतीच्छां परित्यजेत् ॥' [ सोम. उपा. ] ॥७॥ विशेषार्थ-संसारके सुखका स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्दने इस प्रकार कहा है-'जो परद्रव्यकी अपेक्षा रखता है, भूख-प्यास आदिकी बाधासे सहित है, प्रतिपक्षी असाताके उदयसे सहित होनेसे बीच में नष्ट हो जाता है, कर्मबन्धका कारण है, घटता-बढ़ता है, तथा जो इन्द्रियोंके द्वारा प्राप्त होता है ऐसा सुख दुःखरूप ही है।' अन्यत्र भी कहा है 'जो रागात्मक सांसारिक सुख है वह अनित्य है, स्वद्रव्य और परद्रव्यके मेलसे उत्पन्न होता है, तृष्णा और सन्तापका कारण है, मोह, द्रोह, मद, क्रोध, माया और लोभका हेतु है, दुःखका कारण जो कर्मबन्ध है उसका कारण है इसलिए दुःखरूप है।' सम्यग्दृष्टिको भी एकमात्र ज्ञानावरण कर्मके उदयसे संसारके सुख में सुखकी भान्ति होती है । एकमात्र कहनेका यह अभिप्राय है कि उसके साथमें दर्शनमोहका उदय नहीं है क्योंकि सम्यग्दृष्टियोंके दर्शनमोहके उदयसे होनेवाली भ्रान्ति असम्भव है। यदि उनके वैसी भ्रान्ति हो तो उनके मिथ्याज्ञानका प्रसंग आता है । कहा भी है 'ज्ञानावरण कर्मके उदयमें जो ज्ञानमें विपरीतपना आता है वह तो अस्थायी है इसलिए सम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्याज्ञान नहीं कहा है।' तो ज्ञानावरण कर्मके उदयजन्य भ्रान्तिसे सम्यग्दृष्टिको भी संसारके सुखकी चाह होती है। वही चाह सम्यग्दर्शनमें अतीचार लगाती है। कहा है 'यदि सम्यक्त्वमें माहात्म्य है तो मैं देव होऊँ, यक्ष होऊँ अथवा राजा होऊँ, इस प्रकारकी इच्छाको छोड़ना चाहिए।' 'वही चाह' कहनेसे अभिप्राय यह है कि यदि कोई सम्यग्दृष्टि कृषि-व्यापार आदि के द्वारा धन-धान्य प्राप्त करनेकी इच्छा करता है तो वह इच्छा सम्यक्त्वका अतीचार नहीं है ।।७५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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