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________________ १६० धर्मामृत ( अनगार) 'पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य । लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः॥' [पुरुषार्थ. ३२] सम्यक्त्वप्रभुणा~-सम्यक्त्वं च तत्प्रभुश्च परमाराध्यः तत्प्रसादैकसाध्यत्वात् सिद्धेः । यत्तात्विका :--- 'किं पल्लविएण बहु सिद्धा जे णरवरा गए काले। सिज्झिहहिं जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥ [वा. अणु. ९०] सम्यक्त्वं प्रभुरिवेत्यत्रोक्तिलेशपक्षे प्रभुः स्वमते शक्रादिः, परमते तु पार्वतीपतिः श्रीपतिर्वा । ९ प्रणीतमहिमा--प्रवर्तितमाहात्म्यः । जेष्यति--वशीकरिष्यति । सर्वज्ञः--सर्वजगद्भोक्ता च भविष्यतीत्यर्थः ॥६४॥ अथ निर्मलगुणालंकृतसम्यक्त्वस्य निरतिशयमाहात्म्ययोनितया सर्वोत्कर्षवृत्तिमाशंसति-- अतः श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रका कथन उचित नहीं है । उन्होंने ज्ञानको प्रथम स्थान दिया है और सम्यग्दर्शनको द्वितीय । अतः मोक्षमार्गभूत सम्यग्ज्ञानकी आराधना सम्यग्दर्शनके अनन्तर करना चाहिए। शायद कहा जाये कि इन दोनोंकी अलग आराधना नहीं हो सकती; किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है । लक्षणके भेदसे दोनोंमें भेद है । कहा है _ 'यद्यपि सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनका सहभावी है फिर भी उसकी अलग आराधना योग्य है क्योंकि लक्षणके भेदसे दोनोंमें भेद है। यहाँ सम्यग्दर्शनको प्रभु कहा है क्योंकि वह परम आराध्य है। उसीके प्रसादसे मुक्ति की प्राप्ति होती है । कहा भी है___'अधिक कहनेसे क्या ? अतीतमें जो नरश्रेष्ठ मुक्त हुए और भविष्यमें जो मुक्त होंगे वह सम्यक्त्वका माहात्म्य जानो । इस प्रकार सम्यक्त्वकी महिमा जाननी चाहिए।' इस विषयमें दो आर्या हैं-उनका भाव इस प्रकार है-तत्त्वकी परीक्षा अतत्त्वका निराकरण करके तत्त्वके निश्चयको जन्म देती है। तत्त्वका निश्चय दर्शनमोहका उपशम आदि होनेपर तत्त्वमें रुचि उत्पन्न करता है और तत्त्वमें रुचि सर्वसुखको उत्पन्न करती है। अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्वका उपशम होनेपर शुभ परिणामके द्वारा मिथ्यात्वकी शक्तिको रोक देनेवाला सम्यक्त्व होता है वह प्रशम आदिके द्वारा पहचाना जाता है ॥६४।। जिसका सम्यक्त्व निर्मल गुणोंसे सुशोभित है वह भव्यके निरतिशय माहात्म्यका धारक है अतः उसके सर्वोत्कर्षकी कामना करते हैं१. 'तत्त्वपरीक्षाऽतत्त्वव्यवच्छिदा तत्त्वनिश्चयं जनयेत् । स च दृग्मोहशमादी तत्त्वरुचि सा च सर्वसुखम् ॥ शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं प्रशमादिकैरभिव्यक्तम् । स्यात् सम्यक्त्वमनन्तानुबन्धीमिथ्यात्वमिश्रशमे ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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