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________________ द्वितीय अध्याय १५९ प्राच्येन--सम्यक्त्वोत्पत्तेः प्रागभाविना। तदातनेन--सम्यक्त्वोत्पत्तिसमसमयभाविना। कालेत्यादि-सम्यक्त्वोत्पत्तियोग्यसमयसूर्यसारथिशक्त्या (कृशी)कृतस्य मिथ्यात्वस्य तिमिरस्य च निरासार्थे । दिनकृता--आदित्येन । उदेष्यता-सम्यग्भावाभिमुखेन उदयाभिमुखेन च । एतेन सम्यक्त्वोत्पत्तिनिमित्त- ३ भूतो बोधः स्वरूपेण (अ-)सम्यक् सम्यक्त्वोत्पत्तिनिमित्तत्वेनैव सम्यगिति न मोक्षमार्ग इत्युक्तं स्यात् । अतः सम्यक्त्वसहजन्मैव बोधो मोक्षमार्ग इति प्रतिपत्तव्यम् । न चैवं तयोः कार्यकारणभावि(भाव)विरोधः, समसमयभावित्वेऽपि तयोः प्रदीपप्रकाशयोरिव तस्य सुघटत्वात् । तथा चोक्तम्-- 'कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ॥' [ पुरुषार्थ. ३४] अत एव सम्यक्त्वाराधनानन्तरं ज्ञानाराधनोपदेशः । तदप्युक्तम् 'सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः। ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ॥' [ पुरुषार्थ. ३३ ] तेनैतत् सितपटाचार्यवचनमनुचितम्--- 'चतुर्वर्गाग्रणीर्मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः ॥' [योगशास्त्र १४१५] उपेयवत् --उपादेयेन स्वशुद्धात्मस्वरूपेण तुल्यम् । प्रतियता--प्र( ती )तिविषयं कुर्वता । १५ संवित्तिकान्ताश्रिता--सम्यग्ज्ञप्तिप्रियायुक्तेन । स एष सम्यक्त्वानन्तरमाराध्यो मोक्षमार्गभूतो बोधः । न चानयोः पृथगाराधनं न संगच्छते लक्षणभेदेन भेदात् । तदुक्तम्-- निमित्त होता है। तथा सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेसे पहले और उसके समकालमें भी तत्त्वार्थ का बोध होना आवश्यक है, उसीको देशनाल ब्धि कहते हैं । यदि वह बोध परोपदेशसे हुआ हो तो उससे होनेवाले सम्यग्दर्शनको अधिगमज कहते हैं और उसके बिना हुआ हो तो उसे निसर्गज कहते हैं। इसीको लक्ष्यमें रखकर 'गुरुवाग्बोध'का अर्थ-गुरु अर्थात् महान् , वाग्बोध-आगमज्ञान-तत्त्वार्थ-बोध, और गुरुके वचनोंसे होनेवाला बोध, किया गया है। सम्यग्दर्शनसे पहले होनेवाले इस तत्त्वज्ञानको 'उदेष्यता' कहा है । उदेष्यताका अर्थ है उदयके अभिमुख । किन्तु ज्ञानके पक्षमें इसका अर्थ है सम्यक्पनेके अभिमुख। क्योंकि सम्यग्दर्शनसे पहले होनेवाला ज्ञान सम्यक नहीं होता। अतः सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें निमित्त हुआ ज्ञान स्वरूपसे सम्यक नहीं है किन्तु सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें निमित्त होनेसे सम्यक् कहा जाता है । इसलिए वह मोक्षका मार्ग नहीं है किन्तु सम्यक्त्वके साथ होनेवाला ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है। किन्तु सम्यक्त्वके साथ उत्पन्न होनेपर भी सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनमें कार्यकारणपना होने में कोई विरोध नहीं है। जैसे दीपक और प्रकाश समानकाल भावी हैं फिर भी उनमें कार्यकारणपना है वैसे ही सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनमें भी जानना । कहा भी है 'सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों एक समय में उत्पन्न होते हैं फिर भी दीपक और प्रकाशकी तरह उनमें कारण-कार्य-विधान सुघटित होता है।' इसीलिए सम्यग्दर्शनकी आराधनाके अनन्तर ज्ञानाराधनाका उपदेश है । कहा भी है जिनेन्द्रदेव सम्यग्ज्ञानको कार्य और सम्यग्दर्शनको कारण कहते हैं। इसलिए सम्यग्दर्शनके अनन्तर ही ज्ञानकी आराधना योग्य है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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