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________________ १५२ धर्मामृत ( अनगार) ज्ञे सरागे सरागं स्याच्छमादिव्यक्तिलक्षणम। विरागे दर्शनं त्वात्मशुद्धिमात्रं विरागकम् ॥५१॥ जे–ज्ञातरि पुंसि । विरागे-उपशान्तकषायादिगुणस्थानवर्तिनि । आत्मशुद्धिमात्रं-आत्मनो जीवस्य, शुद्धिः-दृग्मोहस्योपशमेन क्षयेण वा जनितप्रसादः, सैव तन्मात्रं न प्रशमादि । तत्र हि चारित्रमोहस्य सहकारिणोऽपायान्न प्रशमाद्यभिव्यक्तिः स्यात् । केवलं स्वसंवेदनेनैव तद्वद्येत । उक्तं च असंयत सम्यग्दृष्टि आदि रागसहित तत्त्वज्ञ जीवके सराग सम्यग्दर्शन होता है । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्यकी व्यक्ति उसका लक्षण है-इनके द्वारा उसकी पहचान होती है । वीतराग उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानवर्ती जीवोंके वीतराग सम्यग्दर्शन होता है। यह सम्यग्दर्शन दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम या क्षयसे होनेवाली आत्माकी विशद्धि मात्र होता है अर्थात् प्रशम संवेग आदि वहाँ नहीं होते; क्योंकि इनका सहायक चारित्र मोहनीय कर्म वहाँ नहीं रहता। केवल स्वसंवेदनसे ही सम्यक्त्व जाना जाता है ॥५१॥ विशेषार्थ-स्वामी विद्यानन्दने भी कहा है जैसा ही विशिष्ट आत्मस्वरूप श्रद्धान सरागी जीवोंमें होता है वैसा ही वीतरागी जीवोंमें होता है। दोनोंके श्रद्धानमें अन्तर नहीं है, अन्तर है अभिव्यक्तिमें। सरागी जीवोंमें सम्यग्दर्शनकी अभिव्यक्ति प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भावसे होती है और वीतरागियोंमें आत्मविशुद्धि मात्रसे। प्रशम आदिका स्वरूप ग्रन्थकार आगे कहेंगे। ये प्रशमादि एक-एक या सब अपनेमें स्वसंवेदनके द्वारा और दूसरों में शरीर और वचनके व्यवहाररूप विशेष लिंगके द्वारा अनुमित होकर सराग सम्यग्दर्शनको सूचित करते हैं। सम्यग्दर्शनके अभावमें मिथ्यादृष्टियोंमें ये नहीं पाये जाते। यदि पाये जायें तो वह मिथ्यादृष्टि नहीं है। शंका-किन्हीं मिथ्यादृष्टियोंमें भी क्रोधादिका उद्रेक नहीं देखा जाता। अतः प्रशम भाव मिथ्यादृष्टियोंमें भी होता है । समाधान-मिथ्यादृष्टियोंके एकान्तवादमें अनन्तानुबन्धी मानका उदय देखा जाता है । और अपनी अनेकान्तात्मक आत्मामें द्वेषका उदय अवश्य होता है। तथा पृथिवीकाय आदि जीवोंका घात भी देखा जाता है। जो संसारसे संविग्न होते हैं, दयालु होते हैं उनकी प्राणिघातमें निःशंक प्रवृत्ति नहीं हो सकती। शंका-अज्ञानवश सम्यग्दृष्टि की भी प्राणिघातमें प्रवृत्ति होती है। समाधान-सम्यग्दृष्टि भी हो और जीवतत्त्वसे अनजान हो यह बात तो परस्पर विरोधी है। जीवतत्त्व-विषयक अज्ञान ही मिथ्यात्व विशेषका रूप है । शंका-यदि प्रशमादि अपनेमें स्वसंवेदनसे जाने जाते हैं तो तत्त्वार्थोंका श्रद्धान भी स्वसंवेदनसे क्यों नहीं जाना जाता ? उसका प्रशमादिसे अनुमान क्यों किया जाता है ? यदि तत्त्वार्थ श्रद्धान भी स्वसंवेदनसे जाना जाता है तो फिर प्रशमादिसे तत्त्वार्थ श्र अनुमान किया जाता है, और तत्त्वार्थ श्रद्धानसे प्रशमादिका अनुमान नहीं किया जाता ? यह बात कौन विचारशील मानेगा ? समाधान-आपके कथनमें कोई सार नहीं है । दर्शनमोहके उपशम आदिसे विशिष्ट आत्मस्वरूप तत्त्वार्थ श्रद्धानके स्वसंवेद्य होनेका निश्चय नहीं है। प्रशम संवेग अनुकम्पाकी तरह आस्तिक्यभाव उसका अभिव्यंजक है और वह तत्त्वार्थश्रद्धानसे कथंचित् भिन्न है क्योंकि उसका फल है। इसीलिए फल और फलवानमें अभेद श्रद्धानका १. 'सरागे वीतरागे च तस्य संभवतोंऽजसा । प्रशमादेरभिव्यक्तिः शुद्धिमात्राच्च चेतसः॥-त. श्लो. वा. ११२।१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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