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________________ द्वितीय अध्याय एतदेशं (-देव) समर्थयते केनापि हेतुना मोहवैधुर्यात् कोऽपि रोचते। तत्त्वं हि चर्चनायस्तः कोऽपि च क्षोदखिन्नधीः॥४९॥ केनापि-वेदनाभिभवादिना। मोहवैधुर्यात्-दर्शनमोहोपशमादेः। चर्चनायस्तः-चर्चया आयासमप्राप्तः । क्षोदखिन्नधी:-विचारक्लिष्टमनाः । उक्तं च-- 'निसर्गोऽधिगमो वापि तदाप्तौ कारणद्वयम् । सम्यक्त्वभाक् पुमान् यस्मादल्पानल्पप्रयासतः' ।। [सोम. उपा. २२३ श्लो.] ॥४९॥ अथ सम्यक्त्वभेदानाह तत्सरागं विरागं च द्विधौपशमिकं तथा। क्षायिक वेदकं त्रेधा दशधाज्ञादिभेदतः ॥५०॥ स्पष्टम् ॥५०॥ अथ सरागेतरसम्यक्त्वयोरधिकरणलक्षणोपलक्षणार्थमाह वेदके अर्थको बिना जाने भी उसमें श्रद्धान होता है उसी तरह हो जायेगा। समाधान नहीं, क्योंकि महाभारत आदि सुननेसे शूद्रको उसीका श्रद्धान देखा जाता है। जैसे कोई व्यक्ति मणिको प्रत्यक्ष देखकर तथा उसकी चमक आदिसे मणि होनेका अनुमान करके उसे ग्रहण करता है। यदि ऐसा न हो तो वह मणिको ग्रहण नहीं कर सकता। तथा मोक्ष भी स्वाभाविक नहीं है, वह स्वकालमें स्वयं नहीं होता। किन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रके आत्मरूप होनेपर ही होता है । इसी तरह सम्यग्दर्शन भी दर्शनमोहके उपशम आदिसे उत्पन्न होता है, केवल स्वकालसे ही उत्पन्न नहीं होता। इसलिए वह स्वाभाविक नहीं है ॥४८॥ आगे इसी का समर्थन करते हैं कोई भव्य जीव तत्त्वचर्चा का श्रम न उठाकर किसी भी निमित्तसे मिथ्यात्व आदि सात कर्म प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेसे तत्त्वकी श्रद्धा करता है। और कोई भव्य जीव तत्त्वचर्चा का क्लेश उठाकर मिथ्यात्व आदिका अभाव होनेसे तत्त्वकी श्रद्धा करता है ॥४९॥ विशेषार्थ-कहा भी है “उस सम्यग्दर्शन की प्राप्तिमें निसर्ग और अधिगम दो कारण हैं; क्योंकि कोई पुरुष तो थोड़े-से प्रयाससे सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तथा कोई बहुत प्रयत्नसे सम्यक्त्वको प्राप्त करता है' तथा जैसे शूद्रको वेद पढ़नेका अधिकार नहीं है। फिर भी रामायण, महाभारत आदिके समवलोकनसे उसे वेदके अर्थका स्वयं ज्ञान हो जाता है। उसी तरह किसी जीवको तत्त्वार्थका रूयं ज्ञान हो जाता है ॥४९|| अब सम्यग्दर्शनके भेद कहते हैं सराग और वीतरागके भेदसे सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं। औपशमिक, क्षायिक और वेदकके भेदसे तीन भेद हैं। तथा आज्ञा सम्यक्त्व आदिके भेदसे दस भेद हैं ॥५०॥ सराग और वीतराग सम्यक्त्वका अधिकरण, लक्षण और उपलक्षण कहते हैं १. 'यथा शूद्रस्य वेदार्थे शास्त्रान्तरसमीक्षणात् । स्वयमत्पद्यते ज्ञानं तत्त्वार्थे कस्यचित्तथा ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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