SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ धर्मामृत (अनगार) संज्वलनोकषायाणां यः स्यात्तीवोदयो यतेः । प्रमादः सोऽस्त्यनुत्साहो धर्मे शुद्धयष्टके तथा ॥ [ लड्डा पं. सं. ११३९] तद्भेदाः पञ्चदश यथा विकहा तहा कसाया इंदिय णिहा तह य पणओ य।। - चदु चदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ॥ [ गो. जी. ३४ ] क्रोधादि:-क्रोधमानमायालोभाः प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाः षोडश हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा-स्त्रीवेद-पुंवेद-नपुंसकवेदाश्च नवेति पञ्चविंशत्यवयवः कषायवर्गः किल। 'कायाः षोडश प्रोक्ता नोकषाया यतो नव। ईषद्भेदो न भेदोऽतः कषायाः पञ्चविंशतिः।' [ 'जिससे मुनिके संज्वलन और नोकषायका तीव्र उदय होता है उसे प्रमाद कहते हैं। तथा दस धर्मों और आठ शुद्धियोंके पालनमें अनुत्साहको प्रमाद कहते हैं। उसके पन्द्रह भेद हैं-चार विकथा (स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, राजकथा ), चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, एक निद्रा और एक स्नेह-ये पन्द्रह प्रमाद हैं। पचीस कषाय हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । इस तरह ये सोलह कषाय हैं। तथा नौ नोकषाय हैं-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद । ये ईषत् कषाय है, क्रोधादि कषायोंका बल पाकर ही प्रबुद्ध होती है इसलिए इन्हें नोकषाय कहते हैं। ये सब पचीस कषाय हैं। आत्माके प्रदेशोंमें जो परिस्पन्द-कम्पन होता है उसे योग कहते हैं । मन-वचन-कायका व्यापार उसमें निमित्त होता है इसलिए योगके तीन भेद होते हैं। इनमें-से पहले गुणस्थानमें पाँच कारण होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यक्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें चार ही कारण होते है क्योंकि उनमें मिथ्यात्वका अभाव है। संयतासंयतके अविरति तो विरतिसे मिश्रित हैं क्योंकि वह देश संयमका धारक होता है तथा प्रमाद कषाय और योग होते हैं। प्रमत्तसंयतके मिथ्यात्व और अविरतिका अभाव होनेसे केवल प्रमाद कषाय और योग होते हैं । अप्रमत्तसे लेकर सूक्ष्म साम्पराय-संयत पर्यन्त चार गुणस्थानों में केवल कषाय और योग होते हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवलीके एक योग ही होता है। अयोगकेवली अबन्धक हैं उनके बन्धका हेतु नहीं है। ____ सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, पञ्चसंग्रह, गोमट्टसार कर्मकाण्ड आदि सभी ग्रन्थों में गुणस्थानों में बन्धके उक्त कारण बतलाये हैं। किन्त पं. आशाधरजीने अपनी टीका भ. कु. च. में तृतीय गुणस्थानमें पाँच कारण बतलाये हैं अर्थात् मिथ्यात्वको भी बतलाया है किन्तु मिथ्यात्वका उदय केवल पहले गुणस्थानमें ही बतलाया गया है। सम्यकूमिथ्यात्व कर्म वस्तुतः मिथ्यात्वकर्मका ही अर्धशुद्ध रूप है, सम्भवतया इसीसे आशाधरजीने मिथ्यात्व १. 'षोडशव कषायाः स्युर्नोकषाया नवेरिताः । ईषद्धदोन भेदोऽत्र कषायाः पञ्चविंशतिः ॥' [ तत्त्वार्थसार ५।११] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy