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________________ द्वितीय अध्याय णाणावरणादीनं जोग्गं जं पोग्गलं समासवदि । दव्वासवो स ओ अणेयभेओ जिणक्खादो ॥ [ द्रव्यसं. ३१ ] पृथक् — प्रत्येकम् । असद्दृग्मुखः - मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगपञ्चकम् । तत्प्रदोषपृष्ठः-३ 'तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः' इत्यादिसूत्रपाठक्रमोक्तः । सः -आस्रवः । तेषां ज्ञानावृत्यादियोग्यपुद्गलानाम् । अत्रैष द्रव्यास्रवः पूर्वश्च भावास्रवः इति मन्तव्यम् ||३६|| अथ भावासवभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह मिथ्यादर्शनमुक्तलक्षणमसुभ्रंशादिकोऽसंयमः शुद्धाष्टविधौ दशात्मनि वृषे मान्द्यं प्रमादस्तथा । क्रोधादिः किल पञ्चविंशतितयो योगस्त्रिधा चास्रवाः पञ्चैते यदुपाधयः कलियुजस्ते तत्प्रदोषादयः ||३७॥ १३३ इस प्रकार शुभ और अशुभ भाव द्रव्य पुण्यास्रव और द्रव्य पापास्रव के निमित्तमात्र होनेसे कारणभूत हैं। अतः जिस क्षण में द्रव्य पुण्य या द्रव्य पापका आस्रव होता है उसके पश्चात् उन शुभाशुभ भावोंको भावपुण्यास्रव और भावपापास्रव कहा जाता है । और उन शुभाशुभ भावोंके निमित्तसे योग द्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंका जो शुभाशुभ कर्मरूप परिणाम है वह द्रव्यपुण्यास्रव और द्रव्यपापास्रव है । इस तरह भावास्रव के निमित्तसे द्रव्यास्रव और द्रव्यास्रव के निमित्तसे भावास्रव होता है । भावास्रव के विस्तार से अनेक भेद हैं । सामान्यसे मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच भेद हैं । तथा तत्त्वार्थ सूत्र के छठे अध्यायमें प्रत्येक ज्ञानावरण आदि कर्मके आस्रव के भिन्न-भिन्न कारण बतलाये हैं । जैसे उक्तलक्षणं – 'मिथ्यात्वकर्मपाकेन' इत्यादिग्रन्थेन । असुभ्रंशादिकः - हिसाविषयाभिलाषप्रमुखः । अष्टविधी - अष्टप्रकारायां वक्ष्यमाणायाम् । मान्द्यं - अनुत्साहः । उक्तं च १२ ज्ञान और दर्शनके विषय में प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात करनेसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका आस्रव होता है । इत्यादि । प्रत्येक के अलग-अलग कारण कहे हैं ||३६|| 1 Jain Education International आगे भावास्रव के भेद कहते हैं मिथ्यादर्शनका लक्षण पहले कह आये हैं । प्राणिका घात आदि करना असंयम है । आठ प्रकारकी शुद्धियों में और दश प्रकारके धर्म में आलस्य करना प्रमाद है । क्रोध आदि पचीस कषाय हैं। तीन प्रकारका योग है । ये पाँच भावास्रव के भेद हैं । इन्हींके विशेष भेद प्रदोष आदि हैं जो जीवसे कर्मोंको संयुक्त करते हैं ||३७|| विशेषार्थ - भावास्रव के मूल भेद पाँच हैं - मिथ्यादर्शन, असंयम या अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । मिथ्यादर्शन का स्वरूप पहले बतला दिया है । प्राणोंके घात करने आदिको असंयम या अविरति कहते हैं; उसके बारह भेद हैं- पृथिवी काय आदि छह कायके जीवोंका घात करना और पाँचों इन्द्रियों तथा मनको वशमें न रखना । अच्छे कार्योंमें उत्साहके न होनेको या उनमें अनादरका भाव होनेको प्रमाद कहते हैं । उसके अनेक भेद हैं। जैसे उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों में तथा आठ प्रकारकी शुद्धियों में प्रमाद का होना । कहा भी है For Private & Personal Use Only ६ ९ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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