SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय १३१ अथ आस्रवतत्त्वं व्याचष्टेज्ञानावृत्यादियोग्याः सदृगधिकरणा येन भावेन पुंसः शस्ताशस्तेन कर्मप्रकृतिपरिणति पुद्गला ह्यात्रवन्ति । आगच्छन्त्यास्रवोसावकथि पृथगसदृग्मुखस्तत्प्रदोष पृष्ठो वा विस्तरेणास्रवणमुत मतः कर्मताप्तिः स तेषाम् ॥३६॥ सदृगधिकरणा:-जीवेन सह समानस्थानाः । उक्तं च अत्ता कुणदि सहावं तत्थ गदा पोग्गला सहावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाढमवगाढा ॥[पञ्चास्ति. ६५] शस्ताशस्तेन-शस्तेन युक्तः शस्तः, अशस्तेन युक्तोऽशस्तः। शस्ताशस्तेन शुभेनाशुभेन चेत्यर्थः। . तत्र शुभः प्रशस्तरागादिः पुण्यास्रवः । अशुभः संज्ञादिः पापास्रवः । तथा चोक्तम्कर्म संन्यास भावना और कर्मफल संन्यास भावनाके द्वारा नित्य ही एक ज्ञान चेतनाको मानना चाहिए। इन बातोंको दृष्टिमें रखकर पंचाध्यायीकारने सम्यग्दृष्टिके ज्ञानचेतना कही है। यथा 'यहाँ ज्ञान शब्दसे आत्मा वाच्य है क्योंकि आत्मा स्वयं ज्ञानमात्र है। ज्ञानचेतनाके द्वारा वह शुद्ध आत्मा अनुभवनमें आता है इसलिए उसे शद्धज्ञान चेतना कहते हैं। इसका आशय यह है कि जिस समय ज्ञानगुण सम्यक् अवस्थाको प्राप्त होकर आत्माकी उपलब्धि रूप होता है उसे ज्ञान चेतना कहते हैं। वह ज्ञान चेतना नियमसे सम्यग्दृष्टि जीवके होती है, मिथ्यादृष्टिके कभी भी नहीं होती क्योंकि मिथ्यात्वकी दशामें ज्ञान चेतनाका होना असम्भव है।' इस तरह सम्यक्त्वके साथ ज्ञान चेतनाका आंशिक प्रादुर्भाव होता है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि ज्ञानके सिवाय परभावों में कर्तृत्व और भोक्तृत्व बुद्धि नहीं रखता। किन्तु उसकी पूर्ति जीवन्मुक्त केवली दशामें होती है ॥३५॥ आस्रवतत्त्वको कहते हैं जीवके जिस शुभ या अशुभ भावसे ज्ञानावरण आदि कर्मोंके योग्य और जीवके साथ उसके समान स्थानमें रहनेवाले पदगल आते हैं-ज्ञानावरण आदि कर्मरूपसे परि होते हैं उसे आस्रव कहते हैं। विस्तारसे मिथ्यादर्शन आदि तथा तत्प्रदोष आदि रूप आस्रव कहा है । अथवा उन पुद्गलोंका आना-उनका ज्ञानावरण आदि कर्मरूपसे परिणत होना आस्रव पूर्वाचार्योंको मान्य है ॥३६॥ . विशेषार्थ-जैन किन्तमें २३ प्रकारकी पुद्गल वर्गणाएँ कहीं हैं। उन्हीं में से कर्मवर्गणा है। कर्मयोग्य पुद्गल सर्वलोकव्यापी हैं। जहाँ आत्मा होती हैं वहाँ बिना बुलाये स्वयं ही वर्तमान रहते हैं। ऐसी स्थितिमें संसार अवस्थामें आत्मा अपने पारिणामिक चैतन्य रणत १. अत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्यस्तन्मात्रतः स्वयम् । सचेत्यतेऽनया शुद्धः शुद्धा सा ज्ञानचेतना ॥ अर्थाज्ज्ञानं गुणः सम्यक् प्राप्तावस्थान्तरं यदा । आत्मोपलब्धिरूपं स्यादुच्यते ज्ञानचेतना ॥ सा ज्ञानचेतना नूनमस्ति सम्यग्दृगात्मनः । न स्यान्मिथ्यादशः क्वापि तदात्वे तदसम्भवात् ॥-पश्चाध्या. उ., १९६-१९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy