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________________ १३० धर्मामृत ( अनगार) ज्ञानादन्यत्रेदं चेतयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना । सा चौभय्यपि जीवन्मुक्त गणी (गोणी) बुद्धिपूर्वककर्तृत्वभोक्तृत्वयोरच्छेदात् । श्लोकः निर्मलोन्मुद्रितानन्तशक्तिचेतयितृत्वतः। ज्ञानं निस्सीमशर्मात्म विन्दन् जीयात् परः पुमान् ।। उक्तं च सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदा । पाणित्तमदिक्कता णाणं विदंति ते जीवा ॥३५॥ [पञ्चास्ति. ३९] स्वभाव अति प्रगाढ़ मोहसे मलिन होनेपर भी और तीव्र ज्ञानावरण कर्मसे शक्तिके मुद्रित होनेपर भी थोड़े-से वीर्यान्तराय कमके क्षयोपशमसे कार्य करनेकी शक्ति प्राप्त है वे सुख-दुःखरूप कर्मफलके अनुभवनसे मिश्रित कर्मको ही प्रधान रूपसे अनुभवन करते हैं। किन्तु समस्त मोहनीय कर्म और ज्ञानावरणीय कर्मके नष्ट हो जानेसे जिनका चेतक स्वभाव अपनी समस्त शक्तिके साथ प्रकट है वे वीर्यान्तरायका क्षय होनेसे अनन्त वीर्यसे सम्पन्न होनेपर - भी अपनेसे अभिन्न स्वाभाविक सुखरूप ज्ञानका ही अनुभवन करते हैं क्योंकि कर्मफलकी निर्जरा हो जानेसे और अत्यन्त कृतकृत्य होनेसे कर्मफल चेतना और कर्म चेतनाको वहाँ अवकाश ही नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्दने ऐसा ही कहा है कि सब स्थावरकाय कर्मफलका अनुभवन करते हैं। बस कर्मचेतनाका अनुभवन करते हैं। और प्राणित्वको अतिक्रान्त करनेवाले ज्ञानचेतनाका अनुभवन करते हैं । यहाँ प्राणित्व अतिक्रान्तका अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रने केवलज्ञानी किया है और आचार्य जयसेनने सिद्धजीव किया है। इन दोनों आचार्योंके कथनोंको दृष्टिमें रखकर ग्रन्थकार आशाधरने अपनी टीकामें 'अस्तप्राणित्वाका अर्थ प्राणित्वसे अतिक्रान्त जीव करके व्यवहारसे जीवन्मुक्त और परमार्थसे परममुक्त दोनोंको लिया है। और लिखा है-मुक्त जीव ही अपनेसे अभिन्न स्वाभाविक सुखरूप ज्ञानका ही अनुभवन करते हैं क्योंकि उनके कर्मफल निर्जीण हो चुका है और वे अत्यन्त कृतकृत्य हैं। किन्तु जीवन्मुक्त केवली मुख्य रूपसे ज्ञानका और गौण रूपसे अन्य चेतनाका भी अनुभवन करते हैं। क्योंकि उनमें बुद्धिपूर्वक कर्तृत्व और भोक्तृत्वका उच्छेद हो जाता है। असल में आत्मा ज्ञानस्वरूप है। आचार्य अमृतचन्द्रने कहा है' आत्मा ज्ञानस्वरूप है, इतना ही नहीं, वह स्वयं ज्ञान है। ज्ञानसे अन्य वह क्या करता है । आत्मा परभावका कर्ता है यह कहना तो व्यवहारी जीवोंका अज्ञान है। ___ अतः ज्ञानसे अन्य भावोंमें ऐसा अनुभव करना कि यह मैं हूँ यह अज्ञान चेतना है। उसीके दो भेद हैं-कर्म चेतना और कर्मफल चेतना। ज्ञानके सिवाय अन्य भावोंमें ऐसा अनुभव करना कि इसका मैं कर्ता हूँ यह कर्म चेतना है और ज्ञानके सिवाय अन्य भावों में ऐसा अनुभव करना कि इसका मैं भोगता हूँ यह कर्मफल चेतना है। ये दोनों अज्ञान चेतना संसारकी बीज हैं। क्योंकि संसारके बीज तो आठ कर्म हैं उनकी बीज अज्ञान चेतना है। उससे कर्मबन्ध होता है। इसलिए मुमुक्षुको अज्ञान चेतनाका विनाश करनेके लिए सकल १. आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम् । परभावस्य कत्मिा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥-समय. कलश, ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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