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________________ द्वितीय अध्याय. ११५ वर्तनालक्षणः कालो वर्तनावत्पराश्रया । यथास्वं गुणपर्यायैः परिणतत्बयोजना ॥ [ महा. पु. २४।१३९] स कालो लोकमात्रोऽस्ति रेणुभिर्निचितस्थितिः । ज्ञेयोऽन्योन्यमसंकीर्णे रत्नानामिव राशिभिः ।। [ महा. पु. २४।१४२ ] तथा लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ठिया हु एक्केक्का। रयणाणं रासिमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ [ द्रव्य सं. २२ ] अपि च-- भाविनो वर्तमानत्वं वर्तमानास्त्वतीतताम् ।। पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते कालकेलिकथिताः ।। [ ज्ञानार्ण. ६।३९ ] तथा युगपन्निखिलावगाहः साधारणकारणापेक्षो युगपन्निखिलावगाहत्वात् य एवंविधोऽवगाहः स एवंविधकारणापेक्षो दृष्टो यथैकसरःसलिलान्तःपाति-मत्स्याद्यवगाहस्तथावगाहश्चायमिति । यच्च तत्साधारण- १२ कारणं तदाकाशमित्याकाशसिद्धिः । तथागमाच्च धम्माधम्मा कालो पोग्गलजीवा य संति जावदिए। आवासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगो खं ॥ [ द्रव्य सं. २० ] विशिष्ट प्रत्यय होनेसे । जो विशिष्ट प्रत्यय होता है वह विशिष्ट कारणपूर्वक देखा गया है जैसे दण्डी आदि प्रत्यय । और पर, अपर, यौगपद्य, शीघ्र, देर में इत्यादि प्रत्यय विशिष्ट हैं । इन प्रत्ययोंका जो विशिष्ट कारण है वह काल है। इस प्रकार वास्तविक कालकी सिद्धि होती है। आगममें भी कहा है कालका लक्षण वर्तना है । वह वर्तना काल तथा कालसे भिन्न अन्य पदार्थों के आश्रयसे रहती है और अपने-अपने यथायोग्य गुण और पर्यायों रूप जो सब पदार्थों में परिणमन होता है उसमें सहायक होती है। ___ वह काल रत्नों की राशिकी तरह परस्परमें जुदे-जुदे स्थिर कालाणुओंसे व्याप्त है। तथा लोक प्रमाण है। एक-एक लोकाकाशके प्रदेशपर एक-एक कालाणु रत्नोंकी राशिकी तरह स्थित हैं । वे कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं। कालके वर्तनसे ही भावि पदार्थ वर्तमानका रूप लेते हैं और वर्तमान पदार्थ अतीतका रूप लेते हैं। कहा है कालकी क्रीडा से सताये गये भावि पदार्थ वर्तमानपनेको और वर्तमान पदार्थ अतीतपने को प्राप्त होते हैं। तथा एक साथ समस्त पदार्थोंका अवगाह साधारण कारणकी अपेक्षा करता है एक साथ समस्त पदार्थोंका अवगाह होनेसे । जो इस प्रकारका अवगाह होता है वह इस प्रकारके कारणकी अपेक्षा करता देखा गया है। जैसे एक तालाबके पानीमें रहनेवाली मछलियोंका अवगाह । यह अवगाह भी वैसा ही है। और जो साधारण कारण है वह आकाश है। इस प्रकार आकाश द्रव्यकी सिद्धि होती है । आगममें भी कहा है जितने आकाशमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, पुद्गल और जीव रहते हैं वह लोक है। उससे आगेका आकाश अलोक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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