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________________ धर्मामृत (अनगार ) कथंचिद् ध्रुवाः - द्रव्यरूपतया नित्याः पर्यायरूपतया चानित्या इत्यर्थाल्लभ्यते । तथाहि - जीवादि वस्तु नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेः । यद्धि बालावस्थायां प्रतिपन्नं देवदत्तादिवस्तु तद् युवाद्यवस्थायां तदेवेदमिति ३ निरारेकं प्रत्यभिज्ञानतो व्यवहरन्ति सर्वेऽपि । तथा तदनित्यं बालाद्यवस्थातो युवाद्यवस्थाऽन्येति निर्बाधतया निर्णीतेः । अथ प्रकारान्तरेण धर्मादिसिद्धये प्रमाणानि लिख्यन्ते । तथाहि -विवादापन्नाः सकलजीवपुद्गलाश्रयाः सकृद्गतयः साधारण बाह्यनिमित्तापेक्षाः युगपद्भाविगतित्वात् एकसरः सलिलानेकमत्स्यादिगतिवत् । तथा ६ सकलजीवपुद्गलस्थितयः साधारणबाह्यनिमित्तापेक्षा युगपद्भावि स्थितित्वादेककुण्डाश्रयाने कवद। दिस्थितिवत् । यत्साधारणं निमित्तं स धर्मोऽधर्मश्च ताभ्यां विना तद्गतिस्थितिकार्यानुपपत्तेः । तथा चागमः --- गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गयणसहयारी । तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो णेइ ॥ ठाणजुदान अहम्मो पुग्गलजीवाण ठाण सहयारी । छाया जह पहिया गर्छता णेव सो धरइ ॥ [ द्रव्य सं. १७-१८ ] १२ ११४ तथा दिग्देशकृतपरापरादिप्रत्ययविपरीताः परापरादिविशिष्टप्रत्यया विशिष्टकारणपूर्वका विशिष्टप्रत्ययत्वात् । यो विशिष्टः प्रत्ययः स विशिष्टकारणपूर्वको दृष्टो यथा दण्डीत्यादिप्रत्ययः, विशिष्टाश्चैते परापरयौगपद्यचिर क्षिप्रप्रत्यया इति । यत्त्वेषां विशिष्टं कारणं स काल इति । वास्तवकालसिद्धिः । आगमाच्च - की शक्ति उत्पन्न नहीं होती। वह शक्ति तो उनमें स्वभावसिद्ध है । इसी तरह सभी द्रव्यों में परिणमन करनेकी भी शक्ति स्वभावसिद्ध है । कालद्रव्य उसमें निमित्त मात्र होता है । इतनी विशेषता है कि कालद्रव्य स्वयं भी परिणमनशील है और दूसरोंके भी परिणमनमें सहायक है । इसी तरह आकाश द्रव्य स्वयं भी रहता है और अन्य सब द्रव्योंको भी स्थान देता है । 'स्थान देता है' ऐसा लिखने से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि आकाश द्रव्य पहले बना और पीछेसे उसमें अन्य द्रव्य आकर रहे। लोककी रचना तो अनादि है । फिर भी लोक में ऐसा व्यवहार किया जाता है कि आकाशमें सब द्रव्य रहते हैं क्योंकि आकाश सब ओर से अनन्त है । अन्य द्रव्य केवल लोकमें ही हैं लोकके बाहर नहीं हैं । वास्तव में तो सभी द्रव्य अपने-अपने आधारसे ही रहते हैं । कोई किसीका आधार नहीं है । इस प्रकार गति, स्थिति, परिणमन और अवगाहन कार्य देखकर धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यकी सत्ता स्वीकार की जाती है। आचार्योंने धर्मादि द्रव्योंकी सिद्धिके लिए जो प्रमाण उपस्थित किये हैं उन्हें यहाँ दिया जाता है । समस्त जीवों और पुद्गलोंमें होनेवाली एक साथ गति किसी साधारण बाह्य निमित्त की अपेक्षा होती है, एक साथ होनेवाली गति होनेसे । एक तालाब के पानी में होनेवाली अनेक मछलियोंकी गति की तरह । तथा सब जीव और पुद्गलोकी स्थिति किसी साधारण बाह्य निमित्तकी अपेक्षा रखती है, एक साथ होनेवाली स्थिति होनेसे, एक कुण्ड आश्रयसे होनेवाली अनेक बेरोंकी स्थितिकी तरह । जो साधारण निमित्त है वह धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य है, उनके बिना उनकी गति और स्थितिरूप कार्य नहीं हो सकता । आगम में कहा है 1 चलते हुए जीव और पुद्गलोंको चलने में सहकारी धर्मद्रव्य है । जैसे मछलियों को चलने में सहायक जल है । वह धर्मद्रव्य ठहरे हुए जीव पुद्गलोंको नहीं चलाता है | ठहरे हुए जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहायक अधर्मद्रव्य है । जैसे छाया पथिकोंको ठहरने में सहायक है । वह अधर्मद्रव्य चलते हुओंको नहीं ठहराता है । तथा दिशा और देशकृत परअपर आदि प्रत्ययोंसे भिन्न पर अपर आदि विशिष्ट प्रत्यय विशिष्ट कारणपूर्वक होते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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