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________________ द्वितीय अध्याय १०५ अथ आप्तानाप्तोक्तवाक्ययोर्लक्षणमाह एकवाक्यतया विष्वग्वर्तते साहती श्रुतिः । क्वचिदिव केनचिद् धूर्ता वर्तन्ते वाक्क्रयादिना ॥१९॥ एकवाक्यतया-एकादृशार्थप्रतिपादकत्वेन । विष्वक्-सिद्धान्ते तर्के काव्यादौ च । कचित्- ३ नियतविषये । धूर्ताः-प्रतारणपराः । वर्तन्ते-जीवन्ति ॥१९॥ अथ जिनवाक्यहेतुप्रतिघातशङ्कां प्रत्याचष्टे जिनोक्ते वा कुतो हेतु बाधगन्धोऽपि शंक्यते । रागादिना विना को हि करोति वितथं वचः ॥२०॥ जिन:--रागादीनां जेता । यत्र तु रागादयः स्युस्तत्र वचसो वैतथ्यं संभवत्येव । तदुक्तम्-- विशेषार्थ-परस्पर सापेक्ष पदोंके निरपेक्ष समुदायको वाक्य कहते हैं। यदि वाक्यका विषय प्रत्यक्षगम्य हो तो प्रत्यक्षसे जानकर उस कथनको प्रमाण मानना चाहिए। यदि वाक्यका विषय अनुमान प्रमाणके द्वारा ग्रहण करनेके योग्य हो तो साधनके द्वारा साध्यको जानकर उसे प्रमाण मानना चाहिए। यदि वह परोक्ष हो, हम लोगोंके प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे ग्रहणके अयोग्य अतीन्द्रिय हो तो उस कथनको आगे पीछे कोई विरोध कथनमें न हो तो प्रमाण मानना चाहिए ॥१८॥ आगे आप्त और अनाप्तके द्वारा कहे गये वाक्योंके लक्षण कहते हैं जो सिद्धान्त, तर्क, काव्य आदि सब विषयों में एक रूपसे अर्थका कथन करता है वह अर्हन्त देवके द्वारा उपदिष्ट प्रवचन है । क्योंकि दूसरोंको धोखा देने में तत्पर धूर्त लोग जिन वचनके किसी नियत विषयमें किसी नियत वचन, चेष्टा और वेष आदिके द्वारा प्रवृत्त होते हैं ॥१९॥ विशेषार्थ-प्रन्थकार पं. आशाधरजीने विक्रम संवत् १३०० में इसकी टीकाको पूर्ण किया था। उस समय तक भट्टारक परम्परा प्रवर्तित हो चुकी थी। उन्होंने किन धूतोंकी ओर संकेत किया है यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया। फिर भी उनके इस कथनसे ऐसा लगता है कि जिनवचनोंमें भी विपर्यास किया गया है। भट्टारक युगमें कुछ इस प्रकारके ग्रन्थ बनाये गये हैं जो तथोक्त धूर्तोंकी कृतियाँ हैं। सच्चे जिनवचन वे ही हैं जो सर्वत्र एकरूपताको लिये हुए होते हैं चाहे सिद्धान्त-विषयक ग्रन्थ हों, या तर्क-विषयक ग्रन्थ हों या कथा काव्य हों उनमें जिनवचनोंकी एकरूपता होती है। यही उनकी प्रामाणिकताका सूचक है । वीतरागताका पोषण और समर्थन ही जिनवचनोंकी एकरूपता है । यदि किसी आचार्य-प्रणीत पुराणादिमें प्रसंगवश रागवर्द्धक वर्णन होता भी है तो आगे ही रागकी निस्सारता भी बतला दी जाती है। यदि कहीं पापसे छुड़ानेके लिए पुण्य-संचयकी प्रेरणा की गयी है तो आगे पुण्यसे भी बचनेकी प्रेरणा मिलती है। अतः प्रत्येक कथनका पौवापर्य देखकर ही निष्कर्ष निकालना उचित होता है ॥१९॥ आप्तोक्त वचनमें युक्तिसे बाधा आनेकी आशंकाका परिहार करते हैं अथवा जिनभगवानके द्वारा कहे गये वचनमें युक्तिसे बाधा आनेकी गन्धकी भी शंका क्यों की जाती है ? क्योंकि राग, द्वेष और मोहके बिना मिथ्या वचन कौन कहता है अर्थात् कोई नहीं कहता ।।२०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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