SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ धर्मामृत (अनगार) यतो वचसो दुष्टत्वादुष्टत्वे तथाविधाश्रयवशाद् भवतस्ततः 'शिष्टानुशिष्टात्' इत्युक्तमत एवेदमाह विशिष्टमपि दुष्टं स्याद् वचो दुष्टाशयाश्रयम् । घनाम्बुवत्तदेवोच्चैर्वन्द्यं स्यात्तीर्थगं पुनः ॥१७॥ आशय:-चित्तमाधारश्च । तीर्थगं-अदुष्टचित्तः पुमान् पवित्रदेशश्च तीथं तदाश्रयम् । ॥१७॥ ' अथ वाक्यस्य यत्र येन प्रामाण्यं स्यात्तत्र तेन तत्कथयति दृष्टेऽर्थेऽध्यक्षतो वाक्यमनुमेयेऽनुमानतः । पूर्वापराविरोधेन परोक्षे च प्रमाण्यताम् ॥१८॥ दृष्टे-प्रत्यक्षप्रमाणग्रहणयोग्ये । प्रमाण्यतां-प्रमाणं क्रियताम् ॥१८॥ दूसरा विशेषण दिया है कि वह आगम युक्ति संगत हो। जैसे आप्तस्वरूपके प्रथम श्लोकमें ही कहा है __ जैसाका तैसा वस्तुस्वरूपका सूचक होनेसे आप्तके द्वारा कहा गया आगम प्रमाण होता है । अतः जो यथावद् वस्तुस्वरूपका सूचक है वही आगम प्रमाण है । तीसरा विशेषण है, उसमें पूर्वापर अविरुद्ध कथन होना चाहिए। जैसे स्मृतिमें कहा है 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि'-सब प्राणियोंकी हिंसा नहीं करना चाहिए। और उसीमें कहा है" "ब्रह्माजीने स्वयं यज्ञके लिए ही पशुओंकी सृष्टि की है।” इस प्रकारके पूर्वापर विरुद्ध वचन बतलाते हैं कि उनका रचयिता कैसा व्यक्ति होगा। दोषसहित या दोषरहित वक्ताके आश्रयसे ही वचनमें दोष या निर्दोषपना आता है। अतः आगमसे वक्ताकी पहचान हो जाती है ॥१६॥ आगे उसीको कहते हैं जैसे गंगाजलकी वर्षा करनेवाले मेघका जल पथ्य होते हुए भी दूषित स्थानपर गिरकर अपथ्य हो जाता है वैसे ही आप्तके द्वारा उपदिष्ट वचन भी दर्शनमोहके उदयसे युक्त पुरुषका आश्रय पाकर श्रद्धाके योग्य नहीं रहता। तथा जैसे मेघका जल पवित्र देशमें पवित्र हो जाता है वैसे ही आप्तके द्वारा उपदिष्ट वचन सम्यग्दृष्टि पुरुषका आश्रय पाकर अत्यन्त पूज्य हो जाता है ॥१७॥ विशेषार्थ-ऊपर कहा था कि वचनकी दुष्टता और अदुष्टता वचनके आश्रयभूत पुरुषकी दुष्टता और अदुष्टतापर निर्भर है। यदि पुरुष कलुषित हृदय होता है तो अच्छा वचन भी कलुषित हो जाता है। अतः आप्तके द्वारा उपदिष्ट वचन भी मिथ्यादृष्टिकी व्याख्याके दोषसे दूषित हो जाता है। अतः आगमके प्रामाण्यका भी निर्णय करना चाहिए। आगम या वचनके प्रामाण्यका निर्णय विभिन्न प्रकारसे किया जाता है ।।१७॥ - जहाँ जिस प्रकारसे वाक्यकी प्रमाणता हो वहाँ उसी प्रकारसे उसे करना चाहिए। ऐसा कहते हैं प्रत्यक्ष प्रमाणसे ग्रहण योग्य वस्तुके विषयमें वाक्यको प्रत्यक्षसे प्रमाण मानना चाहिए। अनुमान प्रमाणसे ग्रहण योग्य वस्तुके विषयमें वाक्यको अनुमानसे प्रमाण मानना चाहिए । और परोक्ष वस्तुके विषयमें वाक्यको पूर्वापर अविरोधसे प्रमाण मानना चाहिए ॥१८॥ १. 'आप्तागमः प्रमाणं स्याद्यथावद्वस्तुसूचकः'-आप्तस्वरूप, १ श्लो.। २. 'यज्ञार्थं पशवः सृष्टा स्वयमेव स्वयंभुवा ।'-मनुस्मृति, ५।३९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy