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________________ धर्मामृत (अनगार ) रजोनीहाराद्यावृतार्थज्ञानस्येव तदपगम इति । तत्साधनं यथा, दोषावरणे क्वचिन्निर्मूलं प्रलयमुपव्रजतः प्रकृष्यमाणानित्वात् । यस्य प्रकृष्यमाणहानिः स क्वचिन्निर्मूलं प्रलयमुपव्रजति, यथा अग्निपुटपाकापसारितकिट्टका३ लिकाद्यन्तरङ्गबहिरङ्गमलद्वयात्मनि हेम्नि मल इति, निर्हासातिशयवती च दोषावरणे इति । सद्य इत्यादिकेवलज्ञानोत्पत्त्यनन्तरभाविना तीर्थंकरत्वाख्यनामकर्मविशेषपाकेन निर्वृत्तया वाचा । कामं यथेष्टम् । जगतां । निरीहः - शासनतत्फलवाञ्छारहितः तन्निमित्तमोहप्रक्षयात् । भगवान्, इन्द्रादीनां पूज्यः ।। १५ ।। १०२ विशेषार्थ - आप्त कैसे बनता है यह यहाँ स्पष्ट किया है । पूर्वजन्ममें तत्त्वाभ्यासपूर्वक सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यग्दृष्टि कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली या श्रुतकेवीके पादमूलमें तीर्थंकर नामक कर्मका बन्ध करता है । कहा है प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें या द्वितीयोपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में स्थित कर्मभूमिज मनुष्य अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर चार गुणस्थानों में केवली या श्रुतकेवीके निकट तीर्थंकर नामक कर्म के बन्धको प्रारम्भ करता है । उसके बाद मरण करके देवगति में जाता है । यदि पहले नरककी आयुबन्ध कर लेता है तो नरक में जाता है। वहाँसे आकर तीर्थंकर होता है । तब स्वयं ही मोक्षमार्गको जानकर दीक्षा लेकर तपस्या के द्वारा चार घातिकर्मोंको नष्ट करके सर्वज्ञ हो जाता है । जिस क्षण में सर्वज्ञ होता है उसी क्षण में पहले बाँधा हुआ तीर्थंकर नामक कर्म उदयमें आता है इससे पहले उसका उदय नहीं होता। उसी कर्मके उदयमें आते ही समवसरण अष्ट महाप्रातिहार्य आदि विभूति प्राप्त होती है और उनकी वाणी खिरती है । पहले लिख आये हैं कि वेदवादी मीमांसक पुरुषकी सर्वज्ञता स्वीकार नहीं करते, वे उसका खण्डन करते हैं । उनके सामने जैनाचार्योंने जिन युक्तियोंसे पुरुषकी सर्वज्ञता सिद्ध की है उसका थोड़ा-सा परिचय यहाँ दिया जाता है 1 कोई पुरुष समस्त पदार्थोंको प्रत्यक्ष जानता है, क्योंकि समस्त पदार्थोंको जाननेका उसका स्वभाव होने के साथ हो, जो उसके जाननेमें रुकावट पैदा करनेवाले कारण हैं वे नष्ट हो जाते हैं । जो जिसके ग्रहण करनेका स्वभाव रखते हुए रुकावट पैदा करनेवाले कारण दूर हो जाते हैं वह उसे अवश्य जानता है, जैसे रोगसे रहित आँख रूपको जानती है । कोई एक विवादग्रस्त व्यक्ति समस्त पदार्थोंको ग्रहण करनेका स्वभाववाला होने के साथ ही रुकावट पैदा करनेवाले कारणोंको नष्ट कर देता है । इस अनुमानसे पुरुषविशेषकी सर्वज्ञता सिद्ध होती है । शायद मीमांसक कहे कि जीवका समस्त पदार्थोंको ग्रहण करनेका स्वभाव असिद्ध है, किन्तु उसका ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वह मानता है कि वेदसे पुरुषको समस्त पदार्थोंका ज्ञान हो सकता है । यदि पुरुषका वैसा स्वभाव न हो तो वेदसे पुरुषको सब पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता, जैसे अन्धेको दर्पणके देखनेसे अपना मुँह दिखाई नहीं देता । तथा व्याप्तिज्ञानके बलसे भी यह सिद्ध होता है कि पुरुष सब पदार्थोंको जान सकता है । जब कोई व्यक्ति धूमके होनेपर आग देखता है और आग के अभाव में धुआँ नहीं देखता तब वह नियम बनाता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँवहाँ आग होती है और जहाँ आग नहीं होती वहाँ धुआँ भी नहीं होता । इसीको व्याप्ति कहते हैं । यह व्याप्ति सर्वदेश और सर्वकालको लेकर होती है । अतः व्याप्तिका निर्माता एक १. पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादि चत्तारि । तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते ॥ - गो. कर्म., गा. ९३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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