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________________ द्वितीय अध्याय अथ मुमुक्षून् परमाप्तसेवायां व्यापारयति - यो जन्मान्तरतत्त्व भावनभुवा बोधेन बुद्ध्वा स्वयं, यो मार्गमपास्य घातिदुरितं साक्षादशेषं विदन् । सद्यस्तीर्थंकरत्वपवित्रमगिरा कामं निरीहो जगत्, तत्त्वं शास्ति शिवार्थिभिः स भगवानाप्तोत्तमः सेव्यताम् ॥१५॥ Jain Education International १०१ 1 घातिदुरितं - मोहनीय ज्ञानावरण-दर्शनावरणान्तरायाख्य कर्मचतुष्टयम् । साक्षादशेषं विदन् । मीमा- ६ सकं प्रत्येतत्साधनं यथा— कश्चित्पुरुषः सकलपदार्थ साक्षात्कारी तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात् । यद्यद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययं तत्तत्साक्षात्कारि, यथापगततिमिरं लोचनं रूपसाक्षात्कारि । तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययश्च विवादापन्नः कश्चित्' इति सकलपदार्थग्रहणस्वभावत्वं नात्मनोऽसिद्धं चोदनात् ( -तः ) सकलपदार्थ परिज्ञानस्यान्यथायोगादन्धस्येवादर्शाद् रूपप्रतीतिरिति । व्याप्तिज्ञानोत्पत्तिबलाच्चाशेषविषयज्ञानसंभवः, केवलं वैशद्ये विवादः । तत्र दोषावरणापगम एव कारणं विशेषार्थ - भूख, प्यास, भय, द्वेष, राग, मोह, चिन्ता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, पसीना, खेद, अहंकार, रति, अचरज, जन्म, निद्रा और विषाद ये अठारह दोष तीनों लोकोंके सब प्राणियों में पाये जाते हैं। इन दोषोंसे जो छूट गया है वही निर्दोष सच्चा आप्त है । और जिनमें ये दोष सदा वर्तमान रहते हैं उन्हें संसारी कहते हैं । तीनों लोकोंके सब संसारी जीवोंमें ये अठारह दोष पाये जाते हैं । जो इन अठारह दोषों को नष्ट करके उनसे मुक्त हो जाता है उसे जीवन्मुक्त कहते हैं । इन अठारह दोषोंके हटने पर उस जीवन्मुक्त परमात्मा में अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्यरूप अनन्तचतुष्टय प्रकट होते हैं और वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है। तब उसकी उपदेशसभा लगती है उसे समवसरण कहते हैं क्योंकि आत्मकल्याणके इच्छुक सभी जीव उसमें जा सकते हैं । समवसरणकी विभूतिका वर्णन त्रिलोक प्रज्ञप्तिके चतुर्थ अधिकारसे जान लेना चाहिए । तब आप्तकी दिव्यध्वनि खिरती है। इस तरह आप्तमें चार अतिशय होते हैं । प्रथम अपायका चले जाने रूप अतिशय, दूसरा ज्ञानातिशय, तीसरा पूजातिशय और चौथा वचनातिशय । अतिशयका अर्थ होता है पराकाष्ठा या चरम सीमा । सब दोषोंका सदाके लिए हट जाना अपायका चले जाने रूप प्रथम अतिशय है । सब अपाय अर्थात् बुराई की जड़ दोष हैं । उनके हटे बिना आगेके अतिशय नहीं हो सकते । दोषोंके हटनेपर अनन्तज्ञान प्रकट होनेसे सर्वज्ञ होते हैं यह ज्ञानातिशय है । सर्वज्ञ होनेपर सब उनकी पूजा करते हैं यह पूजातिशय है । इसीसे उन्हें 'अर्हत' कहा जाता है। तब उनकी दिव्यध्वनि खिरती है जिसे समवसरणमें उपस्थित सब जीव अपनी-अपनी भाषामें समझ लेते हैं । इस तरह सच्चे आप्तके तीन लक्षण हैं - वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता ॥ १४ ॥ आगे मुमुक्षुओं को सच्चे आप्तकी सेवा करनेके लिए प्रेरित करते हैं जो पूर्वजन्म में किये गये तत्त्वाभ्यास से उत्पन्न हुए ज्ञानके द्वारा परोपदेशके बिना स्वयं मोक्षमार्गको जानकर मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मरूप घातिया कर्मों को नष्ट करके समस्त लोकालोकवर्ती पदार्थोंको प्रत्यक्ष जानता है और उसी क्षणमें उदयमें आये तीर्थंकर नामक पुण्य कर्मके उदयसे खिरनेवाली दिव्यध्वनिके द्वारा अत्यन्त निष्कामभावसे भव्यजीवोंको जीवादि तत्त्वका उपदेश देता है, मोक्षके इच्छुक भव्यजीवोंको उस भगवान् परम आप्तकी आराधना करनी चाहिए || १५ || For Private & Personal Use Only ३ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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