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________________ ७८ धर्मामृत ( अनगार) देशो मदीय इत्युपचरितसमाह्वः स एव चेत्युक्तम् । नयचक्रमूलभूतं नयषटकं प्रवचनपटिष्ठः ॥१०॥ होता। किन्तु मतिज्ञानादि अपने प्रतिबन्धक मतिज्ञानावरणादिके क्षयोपशम तथा इन्द्रिय मन आदिकी अपेक्षासे होते हैं। ऐसे गुणोंको जीवका कहना उपचरित नामक अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है। यह ध्यानमें रखना चाहिए कि शुद्धकी संज्ञा अनुपचरित है और अशुद्धकी संज्ञा उपचरित है। आलापपद्धतिमें सद्भुत और असद्भुतके भेद उपचरित और अनुपचरित ही किये हैं। किन्तु ब्रह्मदेवजीने सद्भूतके शुद्ध और अशुद्ध भेद करके उनकी संज्ञा अनुपचरित और उपचरित दी है । उन्हींका अनुसरण आशाधरजीने किया है । अस्तु, 'मेरा शरीर' यह अनुपचरित असद्भुत व्यवहार नयका कथन है, क्योंकि वस्तुतः शरीर तो पौद्गलिक है उसे अपना कहना असद्भुत व्यवहार है किन्तु शरीरके साथ जीवका संश्लेष सम्बन्ध है अतः उसे अनपचरित कहा है। उपचरित असद्भूत व्यवहार नयका कथन करके प्रकृत चर्चाका उपसंहार करते हैं 'मेरा देश' यह उपचरित असद्भुत व्यवहारनयका उदाहरण कहा है। इस प्रकार अध्यात्म शास्त्रके रहस्यको जाननेवालोंने नयचक्रके मूलभूत छह नय कहे हैं ॥१०७॥ विशेषार्थ-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान प्रमाण हैं। इनमें-से श्रुतज्ञानको छोड़कर शेष चारों ज्ञान स्वार्थ हैं, उनसे ज्ञाता स्वयं ही जानता है, दूसरोंको ज्ञान करानेमें असमर्थ है । श्रुतज्ञान ही ऐसा है जो स्वार्थ भी है और परार्थ भी। उससे ज्ञाता स्वयं भी जानता है और दूसरोंको भी ज्ञान करा सकता है । ज्ञानके द्वारा स्वयं जानना होता है और वचनके द्वारा दूसरोंको ज्ञान कराया जाता है। अतः श्रुतज्ञान ज्ञानरूप भी होता है और वचनरूप भी होता है। उसीके भेद नय हैं। नय प्रमाणके द्वारा जानी गयी वस्तुके एक देशको जानता है। तथा मति, अवधि और मनःपर्ययके द्वारा जाने गये अर्थके एक देश में नयोंकी प्रवृत्ति नहीं होती क्योंकि नय समस्त देशवर्ती और समस्त कालवर्ती अर्थको विषय करता है, किन्तु मति आदि ज्ञानका विषय सीमित है । केवलज्ञान यद्यपि त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती सभी पदार्थों को जानता है किन्तु वह स्पष्ट है और नय अस्पष्टग्राही हैं। स्पष्टग्राही ज्ञानके भेद अस्पष्टग्राही नहीं हो सकते। किन्तु श्रुतके भेद होनेपर यह आपत्ति नहीं रहती [ देखो-त. श्लोक वा., ११६] । किसी भी वस्तुके विषयमें ज्ञाताका जो अभिप्राय है उसे नय कहते हैं। नयके भेद दो प्रकारसे मिलते हैं। आगम या सिद्धान्तमें नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंमत ये सात भेद कहे हैं। किन्तु अध्यात्ममें उक्त छह भेद कहे हैं। जिसका केन्द्रबिन्दु आत्मा है उसे अध्यात्म कहते हैं। अध्यात्म आत्माकी दृष्टिसे प्रत्येक वस्तुका विचार करता है । अखण्ड अविनाशी आत्माका जो शुद्ध स्वरूप है वह शुद्ध निश्चय नयका विषय है और अशुद्ध स्वरूप अशद्ध निश्चय नयका विषय है। आत्माके शुद्ध गुणोंको आत्मा के कहना अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नयका विषय है और आत्माके वैभाविक गुणोंको आत्माका कहना उपचरित सद्भुत व्यवहार नय है। क्योंकि वे गुण आत्माके ही हैं इसलिए सद्भूत हुए। उन्हें आत्मासे भेद करके कहनेसे व्यवहार हुआ। शुद्ध गुण अनुपचरित है अशुद्धगुण उपचरित हैं । मेरा शरीर यह अनुपचरित असद्भुत व्यवहार है । शरीरका जीवके साथ सम्बन्ध होनेसे इसे अनुपचारित कहा है। किन्तु शरीर तो जीव नहीं है इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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