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________________ प्रथम अध्याय ওও ३ सद्भूतेतरभेदाद व्यवहारः स्याद द्विधा भिदुपचारः। गुणगुणिनोरभिदायामपि सद्भूतो विपर्ययादितरः॥१०४॥ सद्भूतः शुद्धतरभेदाद द्वेधा तु चेतनस्य गुणाः । केवलबोधादय इति शुद्धोऽनुपचरितसंज्ञोऽसौ ॥१०५॥ मत्यादिविभावगुणाश्चित इत्युपचरितकः स चाशुद्धः । देहो मदीय इत्यनुपचरितसंज्ञस्त्वसद्भूतः ॥१०६॥ जीने स्पष्ट किया है। ब्रह्मदेवजीने द्रव्यसंग्रह गाथा तीनकी टीकाके अन्तमें अध्यात्म भाषाके द्वारा संक्षेपसे छह नयोंका लक्षण इस प्रकार कहा है-सभी जीव एक शुद्ध-बुद्ध स्वभाववाले हैं यह शुद्ध निश्चयनयका लक्षण है। रागादि ही जीव हैं यह अशुद्ध निश्चय नयका लक्षण है । गुण और गुणीमें अभेद होनेपर भी भेद का उपचार करना सद्भूत व्यवहारनयका लक्षण है । भेद होनेपर भी अभेदका उपचार करना असद्भूत-व्यवहार नयका लक्षण है। यथाजीवके केवलज्ञानादि गुण हैं यह अनुपचरित शुद्ध सद्भूत व्यवहार नयका लक्षण है। जीवके मतिज्ञान आदि वैभाविक गुण है यह उपचरित अशुद्ध सद्भूत व्यवहार नयका लक्षण है। संश्लेष सम्बन्ध सहित पदार्थ शरीर आदि मेरे हैं यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। जिनके साथ संश्लेष-सम्बन्ध नहीं है ऐसे पुत्र आदि मेरे हैं यह उपचरित असद्भूत व्यवहारनयका लक्षण है। यह नयचक्रके मूलभूत छह नयोंका लक्षण है । आलापपद्धतिके अन्तमें भी इन नयोंका ऐसा ही स्वरूप कहा है ॥१०३।। व्यवहारनयके दो भेद हैं-सद्भूत और असद्भूत । इन दोनोंका उद्देश्यपूर्वक लक्षण कहते हैं सद्भूत और असद्भूतके भेदसे व्यवहारके दो भेद ह । गुण और गुणीमें अभेद होनेपर भी भेदका उपचार करना सद्भूत व्यवहारनय है। और इससे विपरीत अर्थात् भेदमें भी अभेदका उपचार करना असद्भूत व्यवहारनय है ॥१०४॥ सद्भूत व्यवहारनयके भी दो भेद हैं-शुद्ध और अशुद्ध । इन दोनों भेदोंका नाम बतलाते हए शद्ध सदभत का उल्लेख तथा नामान्तर कहते हैं __सद्भूत व्यवहारनय शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। केवलज्ञान आदि जीवके गुण हैं यह अनुपचरित नामक शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय है ॥१०५।। विशेषार्थ-गुण और गुणी अभिन्न होते हैं । फिर भी जब उनका कथन किया जाता है तो उनमें अभेद होते हुए भेदका उपचार करना पड़ता है। जैसे जीवके केवलज्ञानादि गुण हैं । ये केवलज्ञान आदि जीव के शुद्ध गुण हैं और उपचरित नहीं हैं अनुपचरित हैं-वास्तविक है। अतः यह कथन अनुपचरित शुद्ध सद्भूत व्यवहारनयका विषय है। __ आगेके श्लोकके पूर्वार्द्धमें अशुद्ध सद्भुत व्यवहारनयका कथन और उत्तरार्द्ध में अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनयका कथन करते हैं ___ मतिज्ञान आदि वैभाविक गुण जीवके हैं यह उपचरित नामक अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है । 'मेरा शरीर' यह अनुपचरित असद्भुत व्यवहार नय है ॥१०६।। ___ विशेषार्थ-बाह्य निमित्तको विभाव कहते हैं। जो गुण बाह्य निमित्तसे होते हैं उन्हें बैभाविक गुण कहते हैं । केवलज्ञान जीवका स्वाभाविक गुण है वह परकी सहायतासे नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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