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________________ ७२ ३ धर्मामृत ( अनगार) वृत्तिर्जातसुदृष्टयादेस्तद्गतातिशयेषु या। उद्योतादिषु सा तेषां भक्तिराराधनोच्यते ॥१८॥ व्यवहारमभूतार्थ प्रायो भूतार्थविमुखजनमोहात् । केवलमुपयुञ्जानो व्यञ्जनवद् भ्रश्यति स्वार्थात् ॥१९॥ पहले श्लोक ९२ में उद्योतन आदिके द्वारा मोक्षमार्गका आराधना करना कहा था। भक्ति भी आराधना है अतः उसका लक्षण कहते हैं जिसको सम्यग्दर्शन आदि परिणाम उत्पन्न हो गये हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुरुषकी सम्यग्दर्शन आदिमें पाये जानेवाले उद्योतन आदि रूप अतिशयोंमें जो प्रवृत्ति होती है उसे सम्यग्दर्शनादिकी भक्ति कहते हैं । उसीका नाम आराधना है ।।९८॥ निश्चयनयसे निरपेक्ष व्यवहारनयका विषय असत् है । अतः निश्चय निरपेक्ष व्यवहारका उपयोग करनेपर स्वार्थका विनाश ही होता है यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं ___ व्यंजन ककार आदि अक्षरोंको भी कहते हैं और दाल-शाक वगैरहको भी कहते हैं। जैसे स्वर रहित व्यंजनका उच्चारण करनेवाला अपनी बात दूसरेको नहीं समझा सकता अतः स्वार्थसे भ्रष्ट होता है या जैसे घी, चावल आदिके बिना केवल दाल-शाक खानेवाला स्वस्थ नहीं रह सकता अतः वह स्वार्थ-पुष्टिसे भ्रष्ट होता है । वैसे ही निश्चयनयसे विमुख बहिर्दष्टिवाले मनुष्योंके सम्पर्कसे होनेवाले अज्ञानवश अधिकतर अभतार्थ व्यवहारकी ही भावना करनेवाला अपने मोक्षसुखरूपी स्वार्थसे भ्रष्ट होता है-कभी भी मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता ॥१९॥ विशेषार्थ-आचार्य कुन्दकुन्द स्वामीने' व्यवहारनयको अभूतार्थ और शुद्धनयको भूतार्थ कहा है । तथा जो जीव भूतार्थका आश्रय लेता है वह सम्यग्दृष्टी होता है। आचार्य अमृतचन्द्र भी निश्चयको भूतार्थ और व्यवहारको अभूतार्थ कहते हैं । तथा कहते हैं कि प्रायः सभी संसार भूतार्थके ज्ञानसे विमुख है-भूतार्थको नहीं जानता। भूतार्थको नहीं जाननेवाले बाह्यदृष्टि लोगोंके सम्पर्कसे ही अज्ञानवश व्यवहारको ही यथार्थ मानकर उसीमें उलझे रह जाते हैं । भूतार्थका मतलब है भूत अर्थात् पदार्थों में रहनेवाला अर्थ अर्थात् भाव, उसे जो प्रकाशित करता है उसे भूतार्थ कहते हैं । जैसे जीव और पुद्गलमें अनादि कालसे एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है। दोनों मिले-जुले एक जैसे प्रतीत होते हैं। किन्तु निश्चयनय आत्मद्रव्यको शरीर आदि परद्रव्योंसे भिन्न ही प्रकट करता है। और मुक्ति दशामें वह भिन्नता स्पष्ट रूपसे प्रकट हो जाती है। इसलिए निश्चयनय सत्यार्थ या भूतार्थ है । तथा अभूतार्थका मतलब है पदार्थों में न होनेवाला भाव। उसे जो कहे वह अभूतार्थ है । जैसे जीव और पुद्गलका अस्तित्व भिन्न है, स्वभाव भिन्न है, प्रदेश भिन्न हैं। फिर भी एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध होनेसे आत्मद्रव्य और शरीर आदि परद्रव्यको एक कहा जाता है। १. ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो हु सुद्धणओ। भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ।।-समय., ११ २. निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः ॥-पुरुषार्थ., ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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