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________________ प्रथम अध्याय दृष्ट्यादीनां मलनिरसनं द्योतनं तेषु शश्वद् वृत्तिः स्वस्योद्यवनमुदितं धारणं निस्पृहस्य | निर्वाहः स्याद् भवभयभृतः पूर्णता सिद्धिरेषां निस्तीर्णस्तु स्थिरमपि तटप्रापणं कृच्छ्रपाते ॥९६॥ शङ्कादयो मला दृष्टेव्यंत्यासानिश्चयौ मतेः । वृत्तस्य भावनात्यागस्तपसः स्यादसंयमः ॥९७॥ उद्योत आदिका लक्षण कहते हैं अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तपके दोषोंको दूर करके उन्हें निर्मल करनेको आचार्योंने उद्योतन कहा है । तथा उनमें सदा अपनेको एकमेक रूपसे वर्तन करना उद्यवन है । लाभ, पूजा, ख्याति आदिकी अपेक्षा न करके निस्पृह भावसे उन सम्यग्दर्शन आदिको निराकुलता पूर्वक वहन करना धारणा है । संसारसे भयभीत अपनी आत्मामें इन सम्यग्दर्शनादिको पूर्ण करना सिद्धि है । तथा परीषद उपसर्ग आने पर भी स्थिर रहकर अपनेको मरणान्त तक ले जाना अर्थात् समाधिपूर्वक मरण करना निस्तरण है ||९६ || विशेषार्थ — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तपके उद्योतन, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरणको आराधना कहते हैं । I शंका आदि दोषों को दूर करना उद्योतन है यह सम्यक्त्वकी आराधना है। शास्त्रमें निरूपित वस्तुके विषयमें ‘क्या ऐसा है या नहीं है' इस प्रकार उत्पन्न हुई शंकाका, जिसे सन्देह भी कहते हैं, युक्ति और आगमके बलसे दूर करके 'यह ऐसे ही है' ऐसा निश्चय करना उद्योतन है । निश्चय संशयका विरोधी है । निश्चय होनेपर संशय नहीं रहता । निश्चय न होना अथवा विपरीत ज्ञान होना ज्ञानका मल है। जब निश्चय होता है तो अनिश्चय नहीं रहता तथा यथार्थ ज्ञान होनेसे विपरीतता चली जाती है यह ज्ञानका उद्योतन है । भावनाकान होना चारित्रका मल है । व्रतादिकी भावनाओंमें लगना चारित्रका उद्योतन है । असंयमरूप परिणाम होना तपका दोष है । उसको दूर करके संयम की भावना तपका उद्योतन है । उत्कृष्ट यवनको उद्यवन कहते हैं । आत्माका निरन्तर सम्यग्दर्शनादि रूपसे परिणमन उद्यवन है । निराकुलता पूर्वक वहन अर्थात् धारण करनेको निर्वहण कहते हैं । परीषह आदि आनेपर भी आकुलताके बिना सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणति रहना निर्वहण है । अन्य ओर उपयोगके लगनेसे लुप्त हुए सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणामोंको उत्पन्न करना साधन है । सम्यग्दर्शन आदिको आगामी भव में भी ले जाना निस्तरण है । इस तरह आराधना शब्द के अनेक अर्थ हैं। जब जहाँ जो अर्थ उपयुक्त हो वहाँ वह लेना चाहिए ||१६|| आगे सम्यग्दर्शन आदिके मलोंको कहते हैं— सम्यग्दर्शनके मल शंका आदि हैं । ज्ञानके मल विपर्यय, संशय और अनध्यवसाय हैं | चारित्रका मल प्रत्येक व्रतकी पाँच-पाँच भावनाओंका त्याग है । तपका मल प्राणियों और इन्द्रियोंके विषय में संयमका अभाव है ॥९७॥ १. उज्जोयणमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दंसणणाणचरितं तवाणमाराहणा भणिया ॥ भ. आरा. २ Jain Education International ७१ For Private & Personal Use Only ३ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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