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________________ प्रथम अध्याय अथ मध्यवयसो विपद्भिररति जीवितोपरचितं ( तोपरति च) निरूपयति पिपीलिकाभिः कृष्णाहिरिवापद्भिर्दुराशयः । दंदश्यमानः क्व रति यातु जीवतु वा कियत् ॥८१॥ दंदश्यमानः-गर्हितं खाद्यमानः ॥८१॥ अथ पलितोद्भवदुःखमालक्षयति मोकं पलितं वीक्ष्य वल्लभाः। यान्तीरुद्वगमुत्पश्यन्नप्यपैत्योजसोऽन्वहम् ॥८२।। निर्मोक:-कञ्चुकः । वीक्ष्य-अत्र यान्तीरित्युत्पश्यन्निति वापेक्ष्य उत्पश्यन्-उत्प्रेक्षमाणः । ओजसः-शुक्रार्तधातुपरमतेजसः । तत्प्रत्ययश्च प्रियाविरागदर्शनात् । तथा चोक्तम् 'ओजः क्षीयेत कोपाध्यानशोकश्रमादिभिः' ।।८२॥ अथ जरानुभावं भावयति विस्रसोद्देहिका देहवनं नृणां यथा यथा। चरन्ति कामदा भावा विशीयन्ते तथा तथा ॥८॥ विश्रसा-जरा ॥८३॥ अथ जरातिव्याप्ति चिन्तयति मध्यम अवस्थावाले मनुष्यको विपत्तियों के कारण होनेवाली अरति और जीवनसे अरुचिको बतलाते हैं चींटियोंसे बुरी तरह खाये जानेवाले काले सर्पकी तरह विपत्तियोंसे सब ओरसे घिरा हुआ दुःखी मनुष्य किससे तो प्रीति करे और कबतक जीवित रहे ? ।।८।। सफेद बालोंको देखकर होनेवाले दुःखको कहते हैं वृद्धावस्थारूपी सर्पिणीकी केंचुलीके समान सफेद बालोंको देखकर विरक्त होनेवाली प्रिय पत्नियोंका स्मरण करके ही बुढ़ापेकी ओर जानेवाला मनुष्य दिनोंदिन ओजसे क्षीण होता है ।।८२॥ विशेषार्थ–कहा भी है-कोप, भूख, ध्यान, शोक और श्रम आदिसे ओज क्षीण होता है। वैद्यक शास्त्रके अनुसार ओज शरीरके धातुरसको पुष्ट करता है ।।२।। बुढ़ापेका प्रभाव बतलाते हैं__ मनुष्योंके शरीररूपी उद्यानको बुढ़ापारूपी दीमक जैसे-जैसे खाती है वैसे-वैसे उसके कामोद्दीपक भाव स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं। अर्थात् यह शरीर उद्यानके समान है उद्यानकी तरह ही इसका पालन-पोषण यत्नसे किया जाता है। जैसे उद्यानको यदि दीमके खाने लगें तो बगीचा लगानेवालेके मनोरथोंको पूरा करनेवाले फल-फूल सब नष्ट हो जाते हैं वैसे ही बुढ़ापा आनेपर मनुष्य के कामोद्दीपक भाव भी स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं ।।८३।। बुढ़ापेकी अधिकताका विचार करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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