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________________ ३ ६ १२ १५ ५८ धर्मामृत (अनगार ) अथ कारुकदुरवस्थाः कथयति आशावान् गृहजनमुत्तमर्णमन्यानव्याप्तैरिव सरसो धनैधिनोति । छिन्नाशो विलपति भालमाहते स्वं द्वेष्टीष्टानपि परदेशमप्युपैति ॥७७॥ उत्तमर्णं—धनिकम् । अन्यान् -- सम्बन्धिसुहृदादीन् । आहते – ताडयति ॥७७॥ अथासौ देशेऽपि धनाशया पुनः खिद्यत इत्याह – स्पष्टम् ||७८|| आशया जीवति नरो न ग्रन्थावपि बद्धया । पञ्चाशतेत्युपायज्ञस्ताम्यत्यर्थाशया पुनः ॥ ७८ ॥ अथ इष्टलाभेऽपि तृष्णानुपति दर्शयति- कथं कथमपि प्राप्य किचिदिष्टं विधेर्वशात् । पश्यन् दीनं जगद् विश्वमप्यधीशितुमिच्छति ॥ ७९ ॥ अधीशितुं - स्वाधीनां कर्तुम् ॥ ७९ ॥ अथ साधितधनस्यापरापरा विपदो दर्शयति- दायादाः क्रूरमावत्यमानः पुत्राद्यैर्वा मृत्युना छिद्यमानः । रोगाद्यैर्वा बाध्यमानो हताशो दुर्देवस्य स्कन्धकं धिग् बिर्भात ॥ ८०॥ आवत्र्त्यमानः— लङ्घनादिना कदर्थ्यमानः । छिद्यमानः - वियुज्यमानः । स्कन्धकं - कालनियमेन देयमृणम् ॥८०॥ शिल्पियोंकी दुरवस्था बतलाते हैं मुझे अपने शिल्पका मूल्य आज या कल मिल जायेगा इस आशासे हर्षित होकर शिल्पी मानो धन हाथमें आ गया है इस तरह अपने परिवारको, साहूकारको तथा दूसरे भी सम्बन्धी जनों को प्रसन्न करता है । और निराश होनेपर रोता है, अपने मस्तकको ठोकता है, अपने प्रिय जनोंसे भी लड़ाई-झगड़ा करता है तथा परदेश भी चला जाता है ||१७|| आगे कहते हैं कि वह परदेश में भी धनकी आशासे पुनः खिन्न होता है 'मनुष्य आशासे जीता है, गाँठ में बँधे हुए सैकड़ों रुपयोंसे नहीं,' इस लोकोक्तिके अनुसार जीविकाके उपायोंको जाननेवाला शिल्पी फिर भी धनकी आशासे खिन्न होता है ॥७८॥ आगे कहते हैं कि इष्ट धनकी प्राप्ति होनेपर भी तृष्णा शान्त नहीं होती पूर्वकृत शुभकर्म के योगसे जिस किसी तरह महान् कष्टसे कुछ इष्टकी प्राप्ति होनेपर वह जगत्को अपने से हीन देखने लगता है और समस्त विश्वको भी अपने अधीन करनेकी इच्छा करता है ॥७९॥ धन प्राप्त होनेपर आनेवाली अन्य विपत्तियोंको कहते हैं धन सम्पन्न होनेपर मनुष्यको धनके भागीदार भाई-भतीजे बुरी तरह सताते हैं अथवा मृत्यु आकर पुत्रादिसे उसका वियोग करा देती है या रोगादि पीड़ा देते हैं । इस तरह वह अभागा दुर्दैवके उस ऋणको लिये फिरता है जिसे नियत समयपर ही चुकाना होता है ॥८०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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