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________________ ४४ धर्मामृत ( अनगार) अथ गर्भादिकल्याणाश्चर्यविभूतिरपि सम्यक्त्वसहचारिपुण्यविशेषादेव संपद्यत इत्याह धोरेष्यन् विश्वपूज्यौ जनयति जनको गर्भगोऽतीव जीवो जातो भोगान् प्रभुङ्क्ते हरिभिरुपहृतान् मन्दिरानिष्क्रमिष्यन् । ईर्ते देवर्षिकीति सुरखचरनृपैः प्रव्रजत्याहितेज्यः प्राप्यार्हन्त्यं प्रशास्ति त्रिजगदृषिनुतो याति मुक्ति च धर्मात् ॥४७॥ व्योममार्गात् एष्यन् । तीर्थकरे हि जनिष्यमाणे प्रागेव मासषट्कात्तन्माहात्म्येन तत्पितरी जगत्पूज्यो भवतः । ईर्ते-गच्छति प्राप्नोति । देवर्षिकीर्ति-लौकान्तिकदेवकृतां स्तुतिम् । प्रव्रजति-दीक्षां गृह्णाति याति मुक्ति च । अत्रापि धर्मादित्येव केवलम् । धर्मोऽत्र यो मुख्यतया प्राग् व्याख्यातः । तस्यैव कृत्स्नकर्म- । विप्रमोक्षे सामोपपत्तेः ॥४७॥ __ अथ धर्मोदयानुदयाभ्यां सम्पदामिवाधर्मोदयानुदयाभ्यां विपदामुपभोगानुपभोगौ भवत इत्याह धर्म एव सतां पोष्यो यत्र जाग्रति जाग्रति । १२ भक्तुं मोलति मोलन्ति संपदो विपदोऽन्यथा ॥४८॥ पोष्यः । एतेनोपमानं लक्षयति । ततो यथा उपरिके सावधाने राज्ञां सेवनायावरोधिकाः सावधानाः भवन्ति निरवधाने च निरवधानाः तथा प्रकृतेऽपि योज्यम् । जाग्रति-स्वव्यापार प्रवर्तयति सति । मीलति१५ स्वव्यापारादुपरमति । अन्यथा-अधर्मे जाग्रति ( विपदो ) जाग्रति तस्मिश्च मीलति मीलन्ति ॥४८॥ नौ ग्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव अहमिन्द्र कहलाते हैं। वे सब ब्रह्मचारी होते हैं, उनमें देवांगना नहीं होती ॥४६॥ __ आगे कहते हैं कि गर्भावतरण आदि कल्याणकोंकी आश्चर्यजनक विभूति भी सम्यक्त्व सहचारी पुण्यविशेषसे ही सम्पन्न होती है धर्मके प्रभावसे जब जीव स्वर्गसे च्युत होकर आनेवाला होता है तो माता-पिताको जगत्में पूज्य कर देता है । अर्थात् तीर्थकरके गर्भमें आनेसे छह मास पूर्व ही उनके माहात्म्यसे माता-पिता जगत्में पूज्य बन जाते हैं। गर्भमें आनेपर और भी अधिक पूज्य हो जाते हैं । जन्म लेनेपर सौधर्म आदि इन्द्रोंके द्वारा भेंट किये गये भोगोंको भोगता है। जब वह घरका परित्याग करना चाहता है तो लौकान्तिकदेवोंके द्वारा की गयी स्तुतिका पात्र होता है। फिर देव, विद्याधर और राजाओंसे पूजित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है। अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त करके तीनों लोकोंको धर्मका उपदेश करता है तथा गणधरदेव आदिसे पूजित होता है। अन्तमें मुक्ति प्राप्त करता है ।।४।। विशेषार्थ- इनमें गर्भावतरण आदि महोत्सव तो पुण्य विशेष रूप औपचारिक धर्मके उदयसे होते हैं । किन्तु मोक्षकी प्राप्ति तो पूर्वमें प्रतिपादित मुख्य धर्मसे ही होती है क्योंकि समस्त कर्मोसे छुड़ानेकी शक्ति मुख्य धर्म में ही है ।।४७॥ आगे कहते हैं कि जैसे धर्म-पुण्यके उदयसे सम्पत्तिका भोग और अनुदयमें अनुपभोग है वैसे ही अधर्म-पापके उदयमें विपत्तिका उपभोग और अनुदयमें विपत्तिका अनुपभोग होता है _ विचारशील सत्पुरुषोंको धर्मका ही पोषण करना चाहिए जिसके जाग्रत् रहने परकार्यशील रहनेपर सम्पदाएँ अपने स्वामीकी सेवाके लिए जाग्रत् रहती हैं और विराम लेने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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