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________________ अथ धर्मानुभाव जनितस्वपरान्त रज्ञानानां दर्शयति प्रथम अध्याय अपि च मुनीन्द्राणामतीन्द्रियसुखसंवित्या कथयतु महिमानं को तु धर्मस्य येन स्फुटघटितविवेकज्योतिषः शान्तमोहाः । समरससुखसंविल्लक्षितात्यक्ष सौख्यास्तदपि पदमपोहन्त्याहमिन्द्रं मुनीन्द्राः ॥४६॥ विवेकज्योतिः - स्वपरविभागज्ञानम् । अपोहन्ति — व्यावर्तयन्ति । 'उपसर्गादस्य त्यूही वा' इति परस्मैपदम् । अहमिन्द्रं - अहमिन्द्रः कल्पातीतदेवः । तल्लक्षणमार्षोक्तं यथा 'नासूया परनिन्दा वा नात्मश्लाघा न मत्सरः । केवलं सुखसाद्भूता दीव्यन्त्येते दिवौकसः ॥' 'अहमिन्द्रोऽस्मि नेन्द्रोऽन्यो मत्तोऽस्तीत्यात्तकर्तृताः । अहमिन्द्राख्यया ख्यातिं गतास्ते हि सुरोत्तमाः ॥ " ४३ अहमिन्द्र पदव्यावृत्ति अहमिन्द्रस्येदं पदमित्यण् ॥४६ ॥ आगे कहते हैं कि धर्म के माहात्म्यसे जिन्हें स्वपर भेद-ज्ञान हो जाता है वे मुनीन्द्र अतीन्द्रिय सुखका संवेदन होनेसे अहमिन्द्र पदसे भी विमुख होते हैं Jain Education International [ महा पु. ११।१४४, १४३ ] उस धर्म के माहात्म्यको कौन कह सकता है जिसके माहात्म्यसे स्पष्ट रूप से स्वपरका भेदज्ञान प्राप्त कर लेनेवाले शान्तमोह अर्थात् उपशान्त कषाय गुणस्थानवर्ती और समरस अर्थात् यथाख्यात चारित्रसे होनेवाले सुख की अनुभूति से अतीन्द्रिय सुखको साक्षात् अनुभवन करनेवाले मुनीद्र उस लोकोत्तर अहमिन्द्र पद से भी विमुख हो जाते हैं ? ||४६ || विशेषार्थ - सातवें गुणस्थानके पश्चात् गुणस्थानों की दो श्रेणियाँ हैं- एकको उपशम श्रेणी कहते हैं और दूसरीको क्षपक श्रेणी । उपशम श्रेणीमें मोहनीय कर्मका उपशम किया जाता है और क्षपक श्रेणी में मोहका क्षय किया जाता है । आठसे दस तक गुणस्थान दोनों श्रेणियों में सम्मिलित हैं। उनके बाद ग्यारहवाँ उपशान्त कषाय गुणस्थान उपशम श्रेणीका ही है और बारहवाँ गुणस्थान क्षपकश्रेणीका ही है। इस तरह आठसे ग्यारह तक चार गुणस्थान उपशम श्रेणीके हैं और ग्यारहवेंको छोड़कर आठसे बारह तकके चार गुणस्थान क्षपक श्रेणीके हैं । उपशम श्रेणीपर आरोहण करनेवाला ग्यारहवें गुणस्थानमें जाकर नियमसे नीचे गिरता है क्योंकि दबा हुआ मोह उभर आता है । यदि वह ग्यारहवें में मरण करता है तो नियमसे अहमिन्द्रदेव होता है । किन्तु जो चरमशरीरी होते हैं वे उपशम श्रेणीपर यदि चढ़ें तो गिरकर पुनः क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं और उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करते हैं उक्त श्लोक में ऐसे ही चरमशरीरी मुनिराजोंका कथन है । जो मुनिराज शुद्धोपयोगसे मिले हुए योगविशेष से अहमिन्द्र पदकी प्राप्ति के योग्य पुण्य विशेषके बन्धके अभिमुख होकर भी शुद्धोपयोगके बलसे उसे बिना बाँधे ही उपशम श्रेणी से उतरकर क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं वे जीवन्मुक्त होकर परममुक्तिको प्राप्त करते हैं । महापुराणमें अहमिन्द्रका लक्षण इस प्रकार कहा है मैं ही इन्द्र हूँ, मेरे सिवाय कोई अन्य इन्द्र नहीं है इस प्रकार अपनी सराहना करने से वे उत्तम देव अहमिन्द्र नामसे ख्यात हुए। वे न तो परस्पर में असूया करते हैं न परनिन्दा, आत्मप्रशंसा और न डाह । केवल वे सुखमय होकर क्रीड़ा करते हैं । For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ १२ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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