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________________ (५८) इसका भाव यह है कि - " किं बहुना यदेवाभिमतं हृदि हरिहर - मूर्त्यादिकं तदेवादी ध्यायेत् तस्मादपि ध्यानानियतस्थितिकं भवतीत्यर्थः ॥ भावार्थ:- बहुत कहने से क्या ? अपना हृदय में जो ही अभीष्ट हो उन्हीं में से किसी विष्णु वा शिव आदि देव मूर्त्तियों को पहले ध्यान करना चाहिये इस ध्यान से भी चित्त की स्थिरता होती है । इसी तरह अन्य दर्शनों में भी मूर्त्ति पूजा विषय का प्रतिपादन कल्याण मार्ग के लिये अनेक जगह है। इससे हठ - दुराग्रह छोड़कर मध्यस्थ बुद्धि के द्वारा विचार करके अब आपको मोन लेना चाहिये कि 'मूर्त्ति पूजा' वास्तव में कल्याणकारक है और वेद, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि सभी मान्य ग्रन्थों में मूर्त्ति पूजा को करना अच्छी तरह बतलाया है I आर्य - महात्मन्, अब हमें वेद, धर्मशास्त्र और दर्शन शास्त्रों के प्रमाणों से एवं आपकी अलौकिक युक्तियों से तो 'मूर्त्ति पूजा' के विषय में कुछ भी संशय नहीं रहा. मगर अब कृपया यह बतलावे कि - क्या 'मूर्त्ति पूजा' परम्परा से चली आई है या नवीन है ? यदि प्राचीन है तो इसका किसी प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थों में कहीं उल्लेख है ? दादाजी - सुनियेजी, 'मूर्त्ति पूजा' परम्परा से चली आ रही है, इसलिये यह अत्यन्त प्राचीन है इसमें हम आपको सर्वमान्य ऐतिहासिक प्रमाण देते हैं, जिससे आपको यह मालुम होगा कि हमारे और आपके पूर्वज भी मूर्त्ति पूजा को मानते थे, खूब ध्यान देकर सुनिये: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034562
Book TitleMurti Puja Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishra
PublisherFulchand Hajarimal Vijapurwale
Publication Year1947
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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