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________________ ( २४ ) एकते रहना भी स्वीकार कर लिया। इसपर साथ के साधुओं ने कहा कि हम भी जानते हैं कि जैन शास्त्रोंमें मूर्त्ति पूजा का उल्लेख हैं पर हम इस ग्रहण किया हुए वेष को छोड़ नहीं सकते है । वस इसी कारण से आप उन का साथ त्याग वहाँसे महामन्दिर पधारगये । वहाँसे तिंवरी गये वहाँपर श्रीयुत् लूणकरणजी लोढ़ा व शकरणजीमुहत्ता आपको सहयोग दिया । तिंवरी के स्थानकवासियों की प्राग्रह से चातुमसतिंवरी में ही होना निश्चय हुआ. तथापि श्राप कई श्रावकों के साथ प्रोशियों तीर्थकी यात्रा के लिये पधारे। यहाँपर परम योगिराज मुनिश्री रत्नविजयजी महागजसे भेंट हुई । श्राप श्रीमान् भी १८ ( वर्ष स्थानकवासी समुदाय में रहेहुए थे । वार्तालाप होनेसे परस्पर अनुभव ज्ञान की वृद्धि हुई । हमारे चरित्रनायकजीने दीक्षाकी याचना की इसपर परमयोगिराज निस्पृही गुरुमहाराजने फरमाया कि तुम यह चातुर्मास तो तिंवरी करो और सत्र समाचारियों को पढ़लो ता कि फिर अफसोस करना नहीं पड़े । श्रापश्री करीबन एक मास उस निवृति दायक स्थान पर रहे। उस प्राचीन तीर्थका उद्धार तथा इस स्थान पर एक छात्रालय - इन दोनों कार्यों का भार गुरुमहाराजने हमारे चरित्रनायकजी , के सिर पर डाल दिया गया और आपश्री इन कार्यो को प्रवृत्ति रूप में लाने के लिये वहुत परिश्रम भी प्रारंभ कर दिया । मुनिजीने वहाँपर स्तवन संग्रह पहला भाग और प्रतिमा छत्तीसी की रचना भी करी थी । विक्रम संवत् १६७२ का चातुर्मास ( तिंवरी ) । 1 मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज के प्रादेशानुसार श्रापने अपना नववाँ चातुर्मास तिवरी में किया । व्याख्यान में श्राप श्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034561
Book TitleMuni Shree Gyansundarji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreenath Modi
PublisherRajasthan Sundar Sahitya Sadan
Publication Year1929
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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