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________________ (४४) लोमेंसे महादेवजीने एक कमल हरण कर लिया, मगर शिवजीकी माया विष्णुने नहीं जानी, जब एक कमल अंतमें खुट गया तब विष्णु भगवान अपना एक नेत्र उखाड कर चढाने लगे, यह देखके भक्तोंके दुःख हर्ता शिवजी प्रसन्न हुए, और बोले कि मैं प्रसन्न हूँ, जो इच्छा हो सो माँगो, मेरेको कुछ भी अदेय नहीं है, तब प्रसन्न होकर विष्णुजी बोले, हे शंकर ! आप अंतर्यामी हो, हम आपके आगे क्या माँगे ?, हे भगवान् ! जगत् दैत्योंसे पीडित हो रहा है उनको सुख विधान किजिए, हे देव ! दैत्योंके मारने योग्य कोई आयुध नहीं है, विना आयुधके वे कैसे मर सकते हैं ? मैं क्या करूं ?, कहाँ जाउँ?, आपकी शरणमें प्राप्त हुआ हूँ, ऐसा कह कर असुरोंसे पीडित विष्णु शिवके निमित्त नमस्कार कर शिवजीके सन्मुख उपस्थित हुए, विष्णुके वचन सुनकर शिवजीने उनको सुदर्शनचक्र दिया, इत्यादि वर्णनको देखनेसे बुद्धिमान यह बखूबी समझ सकता है कि विष्णुकी अंदर परमात्मपना तथा सर्वशक्तिमानपना बिलकुल साबित नहीं होता है, कारण कि जो परमात्मा हो सो किसीको मारनेकी इच्छा नहीं करते, और जो सर्व शक्तिमान होता है उसको शस्त्रादिककी कुछ जरुरत नहीं होती, और नाही वह किसीके शरणमें जाता है तथापि कृष्णजी गये और सुदर्शनचक्रको प्रार्थना की इससे सर्वशक्तिमान सिद्ध नहीं होते, तैसे ही कमलके चूरानेका पता न लगनसे कृष्णजी में संपूर्ण ज्ञान भी साबित नहीं होता तथा शिवजीने आराधनसे खुश होकर दैत्याको मारनेके वास्ते विष्णुको सुदर्शनचक्र दिया इससे शिवजीमें भी परमात्मपना साबित नहीं होता है और शिवजी सर्वज्ञ भी नही थे, अगर होते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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