SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२७) अनंतकालतक नरक निगोदमें रुलते हैं सो उनका यह दुःख मिट जावें, मनुष्योंको विचार करना चाहिये कि दो पैसाका मटका लेना होता है तोभी कैसा ठकोर ठकोर कर लेते हैं, तो धर्मका विचार क्यों न करना चाहिये ?, बजारमें जाकर वस्तुकी खरीद करनी होती है तो अनेक दुकानोंकी मुलाकात लेकर जिस दुकानपर अच्छामाल होता है, उसीसे खरीद की जाती है, इसीतरह बुद्धिमानोंको उचित है कि जिसमतमें शुद्धदेव शुद्धगुरु और शुद्धधर्मकी प्राप्ति हो उसी मतम दाखिल होकर शुद्ध तीन तत्त्वरूप सुंदर माल ग्रहणं करना चाहिये कि जिसकी प्राप्तिसे अनंतसुख मिलते हैं, याद रखना चाहिये कि "-तातस्य कूपोऽयमितिब्रुवाणाः क्षारं जलं का. पुरुषाः पिबन्ति "..--अर्थात्-कायर पुरुषों यह मेरे बापका कुंआ है ऐसे कहते हुए उसका खारा पानी भी पीलेते हैं, मगर पाडोशमें रहा हुआ मीठा पानीके कुंएका उपयोग नहीं करते," जब तक यह बात पकडी हुइ है तब तक आदमी कभी सच्चे तत्त्व प्राप्त नहीं कर सकता मगर 'जो अच्छा सो मेरा'की नीतिको स्वीकार करके मेरा सो सच्चेके स्वभावको जलांजली देदेता है वोही परमसत्यमार्गक पासकता है, देखिये प्रथम हिंदु-वैदिक अवतारोंकी मूर्तियां ही उन अवतारोंकी राग द्वेषमय प्रवृत्तिको साबित करती हैं किसीके पास स्त्री खंडी है तो किसीने धनुष्यबाण लिया हुआ है तो किसीने गदा उठाइ है, क्या इससे राग द्वेषकी प्रवृत्तिवाला जीवन सिद्ध नहीं होता है?, कहना ही होगा कि अवश्य, क्योंकि स्त्रीको पास रखना कामीका काम है और कामी महारागी होता है, ऐसे हि शस्त्रोंको द्वेषी ही धारण कर सकता है क्यों कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy