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________________ (१५) श्रावक-भगवन् ! अगर अनादिके एक ईश्वरकी मान्यताका त्याग करके वे लोग अपने उत्पन्न हुए अवतारोंको माने तो इससे तो वे ठीक ईश्वरोपासक बन सकते हैं न?, कारण जैसे अपने यहाँ तीर्थकर प्रभुओंको उत्पन्न हुए प्रभु मानते हैं ऐसे वे लोग कृष्णादि अवतारोंको उप्तन हुए मातते हैं. सूरीश्वर-श्रावकजी ! अपनी मान्गतामें और उनकी मान्यतामें जमीन आस्मान सा अंतर है, अपने मानते हैं कि तीर्थकरदेव संसारमें निवास करनेवाले एक जीव थे मगर कई जन्मोंके त्याग तप जपादि पवित्र संस्कारोंसे घाती कर्मका क्षय करके आत्मामें कैवल्यज्योतिःका प्रकाशं किया है जिससे जगतकी कोई भी वस्तु उनके ज्ञानसे छुपी नहीं रहती और वे अनंतशक्ति संपन्न सुरासुर नरेश करके सेव्य होते हैं और घाती कर्मका क्षय करके उसी जन्ममें मुक्त होनेवाले हैं, और वे लोग मानते हैं कि दैत्यादिका नाश करनेके लिये परमात्मा स्वयं रामादि अवतार लेता है, यहां जरा भी विचार करते हैं तो यह बात बिलकूल ठीक नहीं मालूम होती, कारण कि ऐसे माननेमें अनेक विरोध खडे हो जाते हैं.. .. १-प्रथम विरोध तो यह है कि उनकी मान्यता मूजब सर्वव्यापक ईश्वर है अब बतालाईये ? सर्वव्यापक अवतार कैसे ले सकेगा?, क्या सागर गागरमें बंध हो सकता है, कहनाही पडेगा कि नहीं, समुद्र लोटेमें समा सके तो परमात्मा अवतार ले सके. . २-दूसरा विरोध यह है कि पवित्र परमात्मा भोगकर्ममें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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