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________________ ( ११ ) और न रोके और पिछेसे दंड देवें तो वह अन्यायी क्यों न कहा जावे ?. श्रावक - स्वामिन्! आपका कथन ठीक है कि कर्म करते वख्त समर्थ होकर न रोके और पीछेसे दंड देवें वह न्यायी नहीं हो सकता है, परंतु एक यहभी युक्ति उन striat are पेश होती है कि कोई चोर चोरी करता है, तो वो स्वयं जेल में नहीं जाता या खुनकरनेवाला अपने आप फांसी नहीं चढता मगर राजा देता है, इसीतरह तरह परमात्मा दंड देनेवाला होना चाहिये, क्यों कि कर्म जड है और चेतन दुःखी होना नहीं चाहता, तो फिर दुःख कैसे होगा, और कर्म कैसे भोगे जायेंगे?, तथा वह नरकादिगतिओमें अपने आप कैसे जायगा.. . सूरश्विर - जीव स्वयं दुःखी होना नहीं चाहता यह बात ठीक हैं, मगर कर्म दुःख दिये वगैर नहीं रहता, जैसे खाया हुआ अफीम दुसरेकी वगैर अपेक्षा रक्खे, जीवकी ईच्छा विरुद्ध इसका प्राण लेता है, ऐसे जीव के किये हुए कर्म किसीकी अपेक्षा वगैर आत्माको दुःख दे सकता अशुभ है, जैसे पापके उदयसे कसाई के हाथमें फसा, और वहां मारा गया, और दब कर मर गया, मकान गिर गया, घाडमारुओंने वैरसे काट डाला, बतलावो ? यहां पर परमात्मा कहाँ दंड देने आता है, ऐसे ही लडका मर गया, धन चोरा गया, इत्यादि अनेक कष्ट अशुभ कर्मोंसे संसारिक निमित्तोद्वारा ही जीव भोग सकता है, अगर उन कसाई लुटारें घाडमारु आदिसे जो दुख होता है वहां ईश्वरकी प्रेरणा है ऐसा माने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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