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________________ ( ७ ) करते हैं, इस विषयका विचार आगे स्वतंत्र विस्तारसे सुनाया जायगा, यहाँ तो मात्र प्रसंगवश इतना कहना पडा, मतलब बे लोग ईश्वरको जगतका कर्त्ता मानते हैं, इस लिये उनको यह डर घूस गया है कि अनेक ईश्वर माने जावे तो जगत्की स्थितिमें फेरफार हो जावे, जैसे कोई ईश्वर कहेगा, मनुष्यको दो पांव देने हैं तो कोई कहेगा चार देने हैं, ऐसे पशुमें एक कहता है चार पांव बनाने हैं तो दूसरा दो कहता हैं, इस तरह से ज्ञघडा हो जायगा, वास्ते एक ईश्वरका होना ठीक है परंतु उनका यह विचार बुद्धिपूर्वक नहीं है, क्योंकि हजारो अज्ञान मक्खिएं मिलकर एक सुंदर छत्ता बनाती हैं तो क्या ईश्वर इनसेभी गये बीते हैं, दूसरा जो सर्वज्ञ होवे उनमें कभी भी वैमत्य - विरूद्ध मत नहीं होता तो फिर सर्वज्ञ ईश्वर में वैमत्य कैसे हो सकता है ? अरे ! मैं भूलताहू " मूलं नास्ति कुतः शाखा " जब जगत् कर्त्ता ही ईश्वर नहीं तो फिर बात ही क्या रही है, बस यही कारन है उन लोगोंने एक ईश्वरकी कल्पना करी है. अब दूसरे प्रश्नका जवाब सुनिये -जो कि एक ईश्वर परमात्मा अनादि सिद्ध नहीं हो सकता तो भी ईश्वरपद अनादि बन सकता है, जैसे किसीने पूछा- सोना दुनिया में कबसे है ?, तो जवाब में कह सकते हैं कि अनादिसे है, कोइ दिन ऐसा नहीं था के सोना न हो, मगर जो सोना हुआ है सो खाणसे ही निकला हुआ है अमुक विशेष सोनेका प्रश्न हो कि यह कब से है ? तो इसके उत्तर में 'अनादिसे' ऐसा नहीं कह सकते किंतु आदिसे ही कहना पडेगा, ऐसे ही सामान्य परमात्मपद आ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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