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________________ आत्माका धर्मोपदेश द्वारा सुधारा किया जावे, चाहे किसी जाति या कुलका हो, मैं तुमको जो कुछ सुनाउं मेरी फरज अदा करता हूं; कोई मेरा कृतज्ञ बनो ऐसी अभिलाषा मेरे दिलमें अद्यावधि किसी वख्त नहीं हुई तो इस वख्त कैसे हो सकती है ?, हाँ सिरफ इतनी तो सूचना अवश्य कर सकता हूं कि किसी योग्य पात्रको देखकर मेरी सुनाइ हुई बातें सुनानी और उसको सत्य मार्गकी तरफ झुकाना, एक भी जीवको धर्मकी प्राप्ति करानेवाला संख्यातीत पुण्य उपार्जन करता है और निष्काम भावसे निर्जरा भी कर सकता है, लो सुनो परमात्मपदका विचार, परमात्मपद अनादि है, कोईभी दिन ऐसा नहीं था जिस दिन परमात्मपद नहीं था, जैसे कोईभी ऐसा समय नहीं होता कि जिस समय यह दुनिया न हो, बस इसी तरह यह परमात्मपद अनादि है, अनजानपनसे कितनेक दुनियादार ऐसा मान बैठते हैं किएक अनादि परमात्मा है, जो अनादि कालसे परमशुद्ध है-और वह कभी भी जीवदशामें थाही नहीं, मगर यह बात विचारके बहार है, इस बातका पता परमात्मपदकी व्युत्पत्ति पर विचारकरनेसे निकलता है,-" परमश्चासौ आत्मा च परमात्मा "-मतलब परमरूप आत्मा इसमें 'परम' विशेषण है और 'आत्मा' उस विशेषणको धारण करनेवाला है, अब विचार करो कि किसी आदमीका नाम 'बिहारीलाल' है, पिछेसे वह, 'वकील' हुआ तो उसके नाम के आगे ' वकील शब्द लगानेसे 'वकील बिहारीलाल' ऐसा नाम बना, ऐसे ही केदारनाथ' नाम के मनुष्यने 'जजकी पदवी ' पासकी इससे उसके नामके आगे जज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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