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________________ (२) एक श्रद्धालु श्रावक विश्वविख्यात जगदुद्धारक शुद्धधर्म प्ररूपक निस्पृहिशिरोरत्न न्यायांभोनिधि युगप्रधानक. म श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वर पट्टपूर्वाचल सूर्यसमान शासनप्रभावक श्रीमद्-विजयकमलसूरीश्वरजी महाराजके दर्शनार्थ आया हुआ है, मूरिजी अपने पवित्र करकमलसे लेखिनीरूपनली द्वारा आत्मविचारामृतको पुस्तकरूप कुंडमें बहा रहे हैं, इस अपूर्व परोपकारी कार्यमें दत्तचित्त मूरिजी महाराजसे वंदन स्तवन करके श्रद्धालु श्रावक प्रश्न करने लगा. श्रावक-भगवन् ! आप यह क्या पुस्तक लिख रहे हैं? सुरीश्वर-यह इह लौकिक मान प्रतिष्ठाके पाने के लिये और अपनी सुखसे आजीविका चलाने के लिये भव्यजीवोंको मिथ्यात्वकूपमें उतारकर उनके सर्वस्वका हरण करनेवाले प्रपंची जनों के रचे हुए प्रपंचशास्त्रोंकी नोध ले रहा हूं कि जि. सके पठनसे कितनेक निष्पक्ष भव्यजीव उस अंधकूपसे बहार निकले. श्रावक-स्वामिन् ! तब तो इसे पुस्तक ही नहीं बल्के उन जीवोंको बहार निकलनेमें असाधारण कारण नोंघरूप ग्रंथीवाला रज्जु-गांठोबाला दोरडा भी कह सकते हैं, अच्छा आप महेरबानी करके इसका कुछ हाल मुझे सुना सकते हैं ?. सूरीश्वरजी-तुम पुण्योदयसे शुद्ध शासनके अनुयायियोंमें जन्मे हुए हों इस लिये कुलीन संस्कारसे ही तुम्हारी श्रद्धा शुद्ध तत्वोंकी ओर झूकी हुई है, इस लिये तुमको इन बातोंसे इतना विशेष फायदा नहीं जितना सरल मध्यस्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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