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________________ (१६४) इसका जन्म होता तो न मालूम किस हवाई चालसे चलता. बेशक ! मेरे मित्रके कथनानुसार चौदहसौ तो क्या ? लेकिन दो हज़ार रुपयोंमें खरीदनेवाले भी हजारों ग्राहक मिलते परंतु हाय ! मेरा उतना भाग्य कहां ? जो वह फल मुझको मिलें ?. अस्तु, अब मैं इसे जंगलमेंसे ढूंढ निकालूं. कहीं न कहींसे वह छोटा घोडा हाथमें आ जायगा तो उसे खीला पीला कर मैं बडा बना लूंगा और मेरा मनोरथ पूर्ण हो जायगा. इस विचारसे वो मूर्ख सारे जंगलमें भटकता फिरता है. कोई उसकी वात्ताको सुन कर सत्यस्वरूप पा लेता है तो उसे समझाता है कि, अरे मूर्ख ! तूंने किसी धूर्तसे ठगा कर पांच सौ रुपयोंमें सैफ आठ आनेकी कीम्मतवाला कोल्हा ही लिया होगा और जिसे तूं घोडा समझता है वह खरगोश होना चाहिये. नाहक जंगलमें भटक भटक कर क्यों मरता है ?. इत्यादि अनेक प्रकारसे समझाने पर भी वह उस कोल्हको घोडेका अंडा और खरगोशको घोडा ही समझता रहा और समझानवालोंको असत्यवादी मानता रहा और सारी उमर भटक भटक कर मर गया. महाशय ! जैसे उस मूढके मनमें शल्य भर गया, जिससे कोल्हाको अंडा और ससको घोडा मान लिया, तथा सत्यवादी जनोंको असत्यवादी और शाक बेचनेवाले उस असत्यवादी ठमको सत्यवादी समझता रहा, जिससे सारी उम्रके लिये दुःखो बन गया. बस, इसी तरह जिसके हृदयमें मिथ्यात्वशल्य भर गया हो उसकी भी ऐसी ही दशा होती है. जैसे उस दुर्भागी मनुष्यने अपनी मूर्खतासे उस कोल्हेको घोडेका अंडा समझा ऐसे ही मिथ्यात्वशल्यके कारण घनश्यामकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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